मदरसा-मस्जिद में जाने के पीछे क्या है संघ का एजेंडा

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अगस्त में पांच बड़े मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मुलाकात की थी और अब वे दिल्ली में मदरसा और मस्जिद में पहुंच गए। क्या है संघ का एजेंडा?

आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अगस्त के आखिर में देश के पांच बड़े मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ बैठक की थी, जिनमें दिल्ली के पूर्व एलजी नजीब जंग, चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी शामिल थे। कल वे दिल्ली के एक मदरसे में पहुंच गए। मदरसा के छात्रों से बात की। फिर इमामों के एक संगठन के प्रमुख उमर इलियासी से मुलाकात की। इलियासी ने उन्हें राष्ट्रपिता की संज्ञा दे दी। सवाल यह है कि मोहन भागवत आखिर चाहते क्या हैं, मस्जिद में जाने के पीछे उनका मकसद क्या है?

संघ प्रमुख मोहन भागवत के मस्जिद जाने को लेकर कई तरह के विचार और मत सामने आ रहे हैं। पहला विचार यह है कि संघ को यह आभास हो गया है कि हिंदू-मुस्लिम नफरत की राजनीति का जितना विस्तार हो सकता था, हो चुका। अब इससे आगे विस्तार संभव नहीं। हर चीज की सीमा होती है। सांप्रदायिक राजनीति की भी सीमा है। इसीलिए उसे मुसलमानों के एक तबके का समर्थन चाहिए। माना जा रहा है कि महंगाई, बेरोजगारी और विपक्ष की सक्रियता से भाजपा को 2024 लोकसभा चुनाव में नुकसान हो सकता है, इसलिए संघ उस नुकसान की भरपाई के लिए मुसलमानों के एक हिस्से को अपनी तरफ खींचना चाहता है। हालांकि इसके खिलाफ यह तर्क है कि सांप्रदायिक राजनीति के पास मुद्दों की कमी नहीं है। कॉमन सिविल कोड, जनसंख्या नियंत्रण कानून जैसे मुद्दों के अलावा किस मुद्दे पर ध्रुवीकरण हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता।

एक दूसरा मत यह है कि संघ दिखावे के लिए ऐसा करता है। संघ ने भी बयान में यही कहा कि पहले भी संघ प्रमुख अन्य धर्मों, अन्य वैचारिक धाराओं के प्रतिनिधियों से संवाद करते रहे हैं।

एक तीसरा विचार यह है कि संघ अपने हिंदुत्व के एजेंडे पर कायम है, लेकिन दुनिया में भारत की छवि खराब हो रही है। अमेरिका में संघ और भाजपा की छवि खराब हुई है। कई अमेरिकी संगठन संघ-भाजपा के खिलाफ हैं। इस विचार का मानना है कि संघ का एजेंडा विदेश में खराब हो रही छवि को सुधारना भर है। वह संदेश देना चाहता है कि वह समावेशी विचार वाला संगठन है।

कई लोग यह भी मान रहे हैं कि संघ अपनी ही राजनीति में फंस गया है। अगर वह मुसलमानों के एक हिस्से को जोड़ना चाहता है, तो जिस हिंदुत्व के आधार पर उसने ऊंचाई हासिल की है, उसमें टूटन आ सकती है। भाजपा ऐसी पार्टी है, जिसके नेता सार्वजनिक रूप से कहते रहे हैं कि उसे मुसलमानों का वोट नहीं चाहिए। वह बिना मुसलमानों के वोट के ही सत्ता हासिल करेगी। और उसने ऐसा करके दिखाया भी है। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का दावा करनेवाली भाजपा के 303 सांसदों में एक भी मुस्लिम नहीं हैं। अगर वह समावेशी बनना चाहेगी, तो हिंदुत्व के नाम पर संगठित आधार के एक हिस्से का मोहभंग हो सकता है। इसके विपरीत कई लोग मानते हैं कि मुसलमानों के एक हिस्से को नजदीक लाने से जो सवाल उसके जनाधार में उठेंगे, उसे वह मैनेज कर लेगी।

अंतिम रूप से फिलहाल नहीं कहा जा सकता कि मस्जिद में जाने के पीछे संघ का क्या एजेंडा है। कुछ दिन इंतजार करना पड़ेगा। अगर वह सचमुच गंभीर है, तो उसका व्यवहार ही बताएगा। अगर वह समावेशी राजनीति के प्रति गंभीर नहीं है और सिर्फ मुसलमानों में प्रतिक्रिया भांपना चाहता है, तो कुछ दिनों बाद बात आई-गई हो जाएगी। देखिए, आगे होता है क्या।

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