भले ही बिहार सरकार ने 2018-19 का बजट पेश कर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर लिया है लेकिन इस बजट में खेती-किसानी, आप्दा प्रबंधन, माइनारिटी और एससीएसटी विभागों के बजट में कटौती से समाज का विभिन्न वर्ग सरकार पर आक्रामक है.

शनिवार को  जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय एनएपीएम ने बजट पर बहस रख कर सरकार की दुखती रग पर हाथ रखने की कोशिश की. पटना में यह एनएपीएम के राज्य संयोजक मंडल के सदस्य काशिफ युनूस की पहल पर हुआ. इस अवसर पर उन्होंने कहा कि  अच्छी शिक्षा, बेरोजगारी, खेती किसानी का संकट, बदहाल स्वास्थ सेवाएं एवं पलायन बिहार की प्रमुख चुनौतियां हैं जिसपर सरकार को गंभीरता से काम करने की जरूरत की मांग की। उन्होंने कहा कि इस मायने में राज्य सरकार का बजट 2018-19 इन समस्याओं से उबरने के लिए नाकाफ़ी है।

 गोस्ठी में  जेएनयू के प्रोफेसर सुबोध नारायण मालाकार ने कहा कि बिहार में खेती जीविका का प्रमुख स्रोत रहा है। हर साल बाढ़ और सुखाड़ की वजह किसानों और मजदूरों की कमाई में भारी कमी आयी है। ऐसे में जब आपदा का जोखिम पहले से ज्यादा बढ़ गया है, बिहार सरकार द्वारा आपदा प्रबंधन विभाग को आवंटित राशि में 3273.83 करोड़ रुपये की कटौती हैरान करने वाला निर्णय है। पिछले साल के बाढ़ से सबक लेते हुए सरकार को आपदा प्रबंधन का बजट बढ़ाना चाहिए था। राज्य सरकार का यह निर्णय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी के किसान विरोधी होना साबित करता है।

आपदा प्रबंधन विभाग के पूर्व डारेक्टर राकेश सिन्हा ने मौजूदा बजट में जहाँ सरकार ने अपने प्रचार में 233 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी की है वहीं खाद्य एवं उपभोक्ता विभाग, स्वास्थ्य विभाग, पिछड़ा एवं अति पिछड़ा विभाग, अनुसूचित जाति एवं जन जाति विभाग, श्रम विभाग के बजट में पिछले साल की तुलना में कटौती कर दी है। इससे पता चलता है कि बिहार सरकार का ध्यान जन कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में कम और अपने प्रचार-प्रसार में ज्यादा है।

उज्ज्वल कुमार ने कहा कि इस बजट में किसानों आय बढ़ाने की कोई नीति नहीं है। किसानों को आय दुगुना करने में सिंचाई और अनाज खरीद को सरल बनाकर विशेष राहत पहुँचाया जा सकता था, मगर सरकार के बजटीय आवंटन में इन पहलुओं को नजरअंदाज किया गया है। इस बार के बजट में सरकार ने मध्यम सिंचाई के लिए एक रुपया आवंटित नहीं किया है। जब मध्यम सिंचाई की योजनाओं को गाँव-गाँव तक नहीं पहुँचाया जायेगा तब हर खेत को पानी का नारा कैसे साकार हो सकता है।

अनाज खरीद में सरकारी उदासीनता और राजनीति का शिकार पैक्स वास्तविक किसानों से अनाज खरीदने में विफल रहा है। बिहार का आर्थिक सर्वेक्षण 2018 की रिपोर्ट बताता है कि पैक्स समूह बैंकों के कर्ज वापस भी नहीं कर पा रहे हैं। सरकार ने इस बजट में भी पैक्स के सुदृढ़ीकरण के लिया कोई कदम नहीं उठाया है। केंद्र सरकार 22,000 ग्रामीण हाटों को निर्माण करने का वादा कर रही है मगर बिहार की सरकार की योजनाओं में हाट तो दूर प्रखंड या जिला स्तर पर भी अनाज खरीद केंद्र बनाने की बात नहीं है। इससे जगजाहिर है कि बिहार के किसान अपने अनाज को औने-पौने दाम में बिचौलियों के हाथ बेचने को मजबूर हैं। ऐसे में सरकार का यह कहना कि हम किसानों का आय दुगुना करने को प्रतिबद्ध है यह जुमले के अलावा कुछ भी नहीं है।

सामाजिक कार्यकर्ता अनिल कुमार ने शिक्षा के बाजारीकरण को रोकने एवं रोजगारपरक शिक्षा के लिए सरकार की कोई नीति स्पष्ट नहीं है। वित्तमंत्री यह स्वयं मानते हुए भी कि अंग्रेजी,गणित, भौतिकी, रसायन, जीव विज्ञान एवं वनस्पति विज्ञान के शिक्षकों की भारी कमी है फिर भी सरकार इन खाली पदों पर स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति न कर गेस्ट टीचरों की बहाली कर शिक्षा के साथ खिलवाड़ कर रही है।

आम जन को परिवहन की सुविधा देने में सरकार ने पूरी तरह से हाथ खिंच लिया है। सरकार ने सार्वजनिक सड़क परिवहन में एक रुपये का आवंटन नही किया है। यह निर्णय बिहार में महंगे और निरंकुश परिवहन को ही बढ़ावा देगा।

मनरेगा में 100 दिन के रोजगार देने के कानून को सरकार ने अवहेलना की है। 142.2 लाख जॉब कार्ड धारक मजदूरों में सिर्फ 0.6 प्रतिशत मजदूरों को ही 100 दिन का रोजगार मिला। गौरतलब है कि मनारेगा में कई राज्यों में मजदूरी 265 रुपये तक पहुँच गयी है मगर बिहार की सरकार सभी राज्यों में सबसे कम मजदूरी दे रही है। मजदूरी बढाने की दिशा में सरकार ने कोई निर्णय नहीं लिया है।

सामाजिक सुरक्षा के पेंशन को बढाने के लिए बिहार के सामाजिक संगठन कई सालों से मांग कर रहे हैं मगर सरकार इस पर भी चुप्पी साधे है। दिल्ली, गोवा, केरल आदि कई राज्यों में1000 से 1500 रुपये तक पेंशन दिया जा रहा है मगर बिहार सरकार मात्र 400 रुपये ही दे रही है। जो गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए बेहद कम है।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमारका यह कहना कि भाजपा और जदयू के डबल इंजन से बिहार का तेजी विकास होगा मगर बजट से यह स्पष्ट हो गया है कि केंद्र और राज्य सरकार बिहार के लोगों के आँखों में धुल झोंक रहे हैं। नीतीश कुमार और सुशील मोदी यह बताना चाहिए कि सामान्य सेवाएं एवं सामाजिक सेवाओं में बजट का आवंटन को कम कर बिहार का विकास कैसे किया जा सकता है? सरकार के बजट में गांव किसान ग़रीब की घोर अनदेखी की गई है। जन कल्याण के लिए न्यूनतम आवंटन बताता है कि सरकार की प्राथमिकता में आमजन नहीं है। यह बजट झांसे और ठगी का बजट है।

इस संगोष्ठी का संचालन उदयन राय ने किया । ख्याति प्राप्त वकील योगेश चंद्र वर्मा, साहिद कमल, अरसद अजमल, दलित राइट्स एक्टिविस्ट राजेश्वर पासवान, धनजंय सिन्हा, वकील राहुल कुमार सिंह, हितेश कुमार सहित कई सामाजिक कार्यकर्ता इस गोष्ठी में शामिल रहे।

By Editor