Prophet Mohammad के नवासे इमाम हसन का सत्तात्याग व सुलह मानव इतिहास की अद्भुत घटना, हम क्यों भूल गये?

हजरत मोहम्मद साहब के बाद अली चौथे जानशीन थे वह हुजूर के चाचा जाद भाई भी थे और आप के दमाद भी थे। हुजूर ने अपनी बेटी का उन से निकाह कर दिया था। फातिमा को दो बेटे हसन और हुसैन थे। इन दोनों नवासों को हुजूर बहुत चाहते थे।

pray30days.org( curtsy Pic)
 
 
 
हुजूर के बाद अली जब आप के चौथे जानशीन हुए तब से सीरिया और उसके आसपास के पूरे इलाके के गवर्नर हजरत माविया थे। कुछ कानूनी और राजनीतिक बातें ऐसी पैदा हो गई कि माविया ने अली को खलीफा मनाने से इंकार कर दिया। नौबत यहां तक पहुंची कि दोनों के दरमियां जग हुई। बड़ी तादाद में दोनों तरफ के फौजी मारे गए सुलह की कोशिश भी हुई मगर कोई नतीजा नहीं निकला। इस तरह दोनों अपनी अपनी हदों में खुद मुख्तार हुकमाराँ बने रहे और फिर जल्द ही एक शख्स ने धोखे से हजरत अली को भी कत्ल कर दिया और उनके बाद उनके बड़े बेटे हसन यानी हुजूर के बड़े नवासे उनकी जगह पर हुकमराँ बन गए। समय के साथ इमाम हसन ने हुकूमत पर अपनी गिरफ्त मजबूत कर ली और उनकी फौज काफी मजबूत हो गयी. लेकिन हजरत इमाम के लिए जंग से महत्पूर्ण शांति थी. शांति का यह पाठ उन्होंने अपने नान, हजरत मोहम्मद साहब से और कुरानी शिक्षा से प्राप्त की थी।

जंग के बदले सुलह इस्लामी इतिहास की बड़ी मिसाल

लिहाजा इमाम हसन ने एक बड़ी रणनीति बनाई. उन्होंने एकतरफा तौर पर बगैर किसी शर्त के माविया के हक में हुकूमत से दस्तबरदार( त्याग) हो गये और उन्होंने माविया को लिख भेजा कि अगर हुक्मरानी के आप हकदार है तो यह समझूंगा कि आपको आपका हक मिल गया और हुकूमत करने का ज्यादा हक मेरा है तो मैं अपनी तरफ से आपको अपनी हुकूमत तोहफा देता हूं। इस्लाम के इतिहास में यह वाकया बहुत बड़ी परिघटना के तौर पर याद किया जाता है जिसे पूरी मुस्लिम दुनिया और यहां तक अंग्रेजी इतिहासकार भी मानते हैं। और तमाम मुसलमान इसे अमन व सुलह के लिए बहुत बड़ी मिसाल तस्लीम करते हैं।
 
हजरत हसन का यह ऐतिहासिक त्यागी , कुरान के आदर्श वसूलों पर आधारित है। ऐसी ही अनेक मिसलें पैगम्बर मोहम्मद साहब ने भी अनेक बार पेश की थी।
 
 
मगर अफसोस की बात यह है कि वक्त गुजरने के साथ मुसलमान इस आदर्श को भूलते चले गए और मौका पाते ही ऐसे कई गिरोहों ने सर उठा लिया जिन्होंने इस्लाम इस्लाम के नाम पर हुकूमतों पर कब्जा करने का शौक पूरा किया और इस शौक की कीमत हजारों इंसानों के कत्ल से चुकानी पड़ी।
 
 
 
आज भी सारे मुसलमान हजरत हसन का नाम बहुत एहतराम से लेते हैं मगर कहीं भी यह चर्चा प्रमुखता से सामने नहीं आती कि उन्होंने अमन व सुलह को मजबूत करने के लिए कितनी बड़ी कुर्बानी दी।
 
 
 

नये दौर में मुसलान और जिहाद का नजरिया

 
इस्लामी तारीख में एक दूसरा पहलू ऐसा है जिसे कुछ मुस्लिम तबकों ने पूरी ताकत के साथ हमेशा जिंदा रखा. हुआ यह है कि अगर किसी मुस्लिम हुक्मरां की जिंदगी इस्लाम से कुछ हटती हुई नजर आई तो उसके खिलाफ मुसल्लह( हथियारबंद) टकराव किया गया और कभी ऐसा भी हुआ कि इन बातों को बहाना बनाकर अलग ही नजरिया गढ़ लिय गया जिनका असल इस्लाम से कोई ताल्लुक नहीं था। इसी तरह ऐसा भी हुआ कि कुछ मजहबी लोग ऐसे भी उठते रहे जो अपनी नियत के एतबार से तो सही थे मगर वह बड़ी ताकतों के खिलाफ हथियार उठाते वक्त बिलकुल समझ नहीं पाये कि किसी भी हुकूमत का छोटा सा फौजी दस्ता उनको खत्म कर सकता है। इसकी एक बहुत बड़ी मिसाल 18 वीं सदी में सामने आया। कुछ  लोगों ने एक ऐसा तबका इकट्ठा कर लिया जिनको यह धुन सवार थी कि  जिहाद  करके किसी भी इलाके में इस्लामी हुकूमत कायम की जा सकती है। वे इस नजरिया को जायज भी करार देने लगे। इस मकसद के लिए वे अफगानिस्तान गये और यहां इरादा था कि उनको साथ लेकर पंजाब के राजा के संग  की जाए मगर अजीब बात यह है कि उन्हीं अफगानियों के ऊपर जब इस्लामी कानून नाफिज किया तो यह वहां के लोगों को बहुत नगांवारा गुजार। और नमाज की हालत में उन पर हमल  करके एक बड़ी तादाद में लोगों को शहीद कर दिया। बचे हुए लोग पंजाब की तरफ आए तो राजा की फौज पर भी हमला कर दिया। यह खुले तौर पर  गैर दानिश मंदाना अमल था और अपने आपको तबाही के लिए पेश करना बराबर था।
मगर कितनी अजीब बात है कि आज कुछ अलामिम और सामान्य किस्म के पढ़े-लिखे लोग मुसलमानों के लिए खुद को आदर्श के रूप में पेश करते हैं। हम किसी का नाम नहीं लेना चाहते मगर जानने वाले सब को जानते हैं। इस दुनिया में सारे मामले सुलह की बुनियाद पर ही हल होते हैं पर ताकतों का बैलेंस  बुनियादी शर्त है। इस्लाम की बुनियादी तालीम तो यही है कि टकराव को हर कीमत पर टाला जाए और सुलह की हालत पैदा की जाए। कुछ लोग बड़े जोश के साथ जंगे बदर ( बदर के मैदान की प्रसिद्ध जंग) की मिसाल पेश करते हैं मगर यह वह यह भूल जाते हैं कि उसमें अल्लाह की तरफ से अपने पैगंबर को कामयाबी के लिए  मदद हासिल थी. मगर बड़ी से बड़ी तबाही के बाद भी ऐसे कुछ लोग  हैं जो बात बना देंगे मगर इसे गलती मानने की हिम्मत नहीं करेंगे। इसलिए हमें जानना होगा कि हर जंग को जिहाद का नाम दे कर उसे ही इस्लामी उसूल करार देने के चलन को अस्वीकार किया जाये।

By Editor