सत्ता और सरकार का मुखौटा बने रहने की बेबस परम्परा को राष्ट्रपति कोविंद ने जिस साहस से चुनौती दे डाली है उसकी उम्मीद आरएसएस, सत्ताशीर्ष पर बैठे महारथियों और सामंतवाद के सारथी मीडिया को भी नहीं थी.

इर्शादुल हक, एडिटर, नौकरशाही डॉट कॉम 

कुछ महीने पहले जब बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति चुना गया तो कुछ लोगों ने उन्हें संघ का मुखौटा घोषित कर दिया था. यह बताया जा रहा था कि कोविंद हिंदुत्व की राजनीति के वाहक हैं और यह भी कि वह संघवादी एजेंडे को आगे बढ़ायेंगे. पर रामनाथ कोविंद ने कल ही जिस तरह का साहसिक बयान दिया है, वह साबित करता है कि कोविंद को भले ही आरएसएस और भाजपा के समर्थन से राष्ट्रपति बनाया गया है लेकिन वह अपनी सोच और अपने आइडियोलॉजी के स्तर पर न सिर्फ स्वतंत्र हैं बल्कि रबड़ स्टाम्प राष्ट्रपति की परिधि में कैद होना उन्हें स्वीकार नहीं.

राष्ट्रपति ने विधि आयोग और निति आयोग द्वारा आयोजित मीटिंग में जोरदार तरीके से अपनी बात रखी और कहा कि उच्चस्तर की न्यायपालिका में कमजोर वर्गों खास तौर पर एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं की भागीदार काफी कम है. यह स्तर एक दम अस्वीकार्य है. उन्होंने कहा कि न्यायपालिका को सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करना होगा. इतना ही नहीं कोविंद ने यहां तक कहा कि देश की अन्य संस्थाओं की तरह न्यायपालिका को भी सभी समुहों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करना चाहिए ताकि यह हमारे देश की विविधता भरे समाज का प्रतिनिधित्व कर सके.

मीडिया ने नकारा, सोशल मीडिया ने माथे पर बिठाया

एक राष्ट्रपति जैसे महत्वपूर्ण पद की जिम्मेदारी संभाल रहे व्यक्ति का यह बयान स्वाभाविक तौर पर काफी महत्वपूर्ण है. लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि ज्यादातर हिंदी अखबारों ने इस बयान को जानबूझ कर डाउन प्ले कर दिया. कुछ अंग्रेजी अखबारों ने इस खबर के महत्व को समझा. भले ही हिंदी अखबारों ने इस खबर को तरजीह न देने की सोची समझी रणनीति अपनायी पर ऐसे अखबारी संस्थाओं को तब बहुत बड़ा झटका लगा जब फेसबुक पर राष्ट्रपति कोविंद और उनका बयान टॉप ट्रेंड करने लगा.

 

खैर इस खबर के प्रति अखबारों के रवैये के इतर यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि राष्ट्रपति कोविंद ने ऐसा बयान दे कर देश की न्यायपालिका के सामाजिक स्वरूप की असली तस्वीर सामने ला दी है. यह जगजाहिर है कि भारत की न्यायपालिका में जजों के पदों पर न सिर्फ इने गिने जातीय समुह का कब्जा है बल्कि कुछ दर्जन घरानों का ही हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के पदों पर कब्जा है. कोविंद ने आंकड़े पेश करते हुए आईना दिखा दिया है कि देश की तमाम अदालतों के 17 हजार जजों के पद पर महज 4700 पदों पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व है. यह मात्र 25 प्रतिशत के करीब है. उन्होंने कहा कि अदालतों को इस अनुपात को और समानुपातिक बनाने की जरूरत है.

संघ और सत्ता को चुनौती

रामनाथ कोविंद के इस बयान का एक और महत्वपूर्ण पक्ष है. उनका यह बयान सत्ता शीर्ष पर बैठे नेताओं और खास तौर पर  आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों को कुबूल नहीं हो सकता. ये संगठन वर्णवादी निजाम के पोशक रहे हैं. रामनाथ कोविंद इस बात को भलीभांति जानते हैं. उन्हें यह भी पता है कि उनके इस बयान का मतलब यह है कि उनके खिलाफ पर्दे के पीछे एक मजबूत मोर्चा खोल दिया जायेगा. लेकिन यह सब जानते हुए भी राष्ट्रपति कोविंद ने जिस साहस और हौसले का परिचय दिया है, उससे यह साबित हो गया है कि उन्हें आरएसएस का मुखौटा घोषित करने वालों की आशंका गलत थी.

आम तौर पर यह देखा जाता है कि राष्ट्रपति पद पर बैठा व्यक्ति सत्ताधारी दल के एहसान तले  इतना दबा होता है कि वह स्वतंत्र रूप से अपनी बात रखने का साहस नहीं जुटा पाता. उसे इस बात का ख्याल रखना पड़ता है कि सत्ता शीर्ष पर बैठी शक्तियां कहीं उससे नाराज न हो जायें. पर राष्ट्रपति कोविंद ने इन तमाम आशंकांओं को धराशाई कर दिया है. उनके इस बयान के लिए सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाली पार्टियों को खुल कर समर्थन करना चाहिए.

 

 

By Editor