क्या RJD- JDU साथ आने की तैयारी में हैं-Irshadul Haque

क्या RJD- JDU फिर एक साथ आने की तैयारी में हैं

जब से BJP ने अरुणाचल में JDU के छह विधायकों को तोड़ा है तब से कई तरह की खिचड़ी पक रही है. लेकिन अक्सर राजनीति में जो दिखता है वह होता नहीं और जो होता है वह तब नजर आता है जब हो चुका होता है.

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Irshadul Haque, Editor naukarshahi.com

अभी हो यह रहा है कि RJD के अनेक वरिष्ठ नेता यह बताते हुए पाये जा रहे हैं कि जदयू के विधायक उनके सम्पर्क में हैं और जदयू टूट के कगार पर है. श्याम रजक ने ये बात कही है. किसी दल को तोड़ने की प्लानिंग की घोषणा कोई अनुभवहीन नेता ही समय से पहले कर सकता है. श्याम रजक इतने भी अनुभवहीन नहीं हैं. दूसरी तरफ भाजपा की तरह पुरअसरार सन्नाटा पसरा है. यह सन्नाटे में शिद्दत तब और बढ़ गयी जब नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह को ऐसे समय में अचानक पार्टी का अध्यक्ष बना दिया, जबकि नीतीश का कार्यकाल अभी एक साल का बाकी था. तुर्रा यह कि अध्यक्ष पद संभालते ही आरसीपी ने भाजपा का नाम लिये बिना कड़ी चेतावनी दे डाली. उन्होंने कहा कि हम जिसके साथ रहते हैं पूरी ईमानदारी के साथ रहते हैं. अपने सहयोगी के साथ गद्दारी नहीं करते. आरसीपी का यह बयान अरुणाचल प्रकरण से जोड़ कर देखा गया. भाजपा के अंदरखाने में सन्नाटा इसी को ले कर है. यही कारण है कि उधर का कोई नेता अब नीतीश के खिलाफ बोलने की हिमाकत नहीं कर रहा. वर्ना इससे पहले संजय पासवान से ले कर खुद भाजपा प्रदेश अध्यक्ष तक ने कानून व्यवस्था के बहाने नीतीश सरकार पर निशाना साध चुके हैं.

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तो ऐसे में यह सवाल गंभीरता से पूछा जाने लगा है कि क्या RJD-JDU के बीच शीर्ष स्तर पर कोई बातचीत चल रही है? या फिर राजद नेताओं द्वारा जदयू को तोड़ने वाले बयान का क्या अर्थ है.

इस बीच राबड़ी देवी का एक बयान साल के शुरू होते ही सामने आया है. कुछ मीडिया रिपोर्ट के अनुसार राबड़ी ने कहा है कि “नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को फिर महागठबंधन में शामिल करने पर पार्टी के नेता विचार करेंगे. प्रदेश अध्यक्ष सहित तमाम नेता इसपर चर्चा करेंगे”.

राबड़ी देवी के इस बयान से यह आभास होता है कि कुछ तो खिचड़ी पक रही है. क्योंकि इस मामले में, बताया जाता है कि लालू प्रसाद खुद सक्रिय हो गये हैं.

राजनीति में अकसर ऐसी घटनायें घटित होती हैं जिसके बारे में आसानी से पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता. कुछ भी हो सकता है.

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उधर भारतीय जनता पार्टी के अंदर पसरे सन्नाटे की वजह भी यही है. दूसरी तरफ जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी ने अरुणाचल प्रदेश में जनता दल यू की पीठ में खंजर भोका है, उससे नीतीश कुमार आहत तो हैं ही, उन्हें भाजपा से अलग होने का एक मजबूत आधार भी मिल गया है.

लेकिन नीतीश कुमार की सियासत को समझना आसान नहीं है. उनकी सियासी चालें ब एक वक्त दोनों दिशाओं में चलती हैं. हमें इस प्वाइंट को ऐसे भी समझने की जरूरत है कि क्या जदयू के रणनीतिकार, राजद से बातचीत, भाजपा को प्रेशर में लाने के लिए तो नहीं कर रहे हैं? ऐसा इस लिए भी संभव है क्योंकि भाजपा को, नीतीश कुमार राजद से दोस्ती की संभावना का भय दिखा कर घुटने पर ला सकता है. उधर राजद के गठबंधन में जा कर नीतीश कुमार को कोई खास सियासी लाभ नहीं होने वाला. क्योंकि राजद उन्हें महागठबंधन में तब लेगा जब नीतीश इस शर्त पर राजी हो जायें कि मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव बनेंगे. लेकिन सियासत के कुछ जानकारों का मानना है कि नीतीश कुमार को अब यह एहसास होने लगा है कि भाजपा के साथ और दोस्ती निभाने का सीधा अर्थ यही है कि वह जदयू को मिटाने पर तुली है. अरुणाचल प्रदेश इसका ताजा उदाहरण है. साथ ही चुनाव के दौरान, जदयू के खिलाफ चिराग पासवान को मुहरे के तौर पर भाजपा द्वारा इस्तेमाल किये जाने का जख्म भी पुराना नहीं है. चिराग के खुले विरोध के कारण ही जदयू 71 से सिमट कर 43 सीटों पर आ पहुंचा.

अगर नीतीश कुमार ने ऊपर के दो तर्कों पर गौर किया तो उन्हें जरूर एसहास होगा कि मुख्यमंत्री का पद बचाने से बेहतर है कि अब पार्टी को पहले बचाया जाये. अगर पार्टी बचाने की प्राथमिकता पर नीतीश कुमार गौर करते हैं तो संभव है कि भाजपा के साथ उनकी दोस्ती के अब गिने-चुने दिन ही रह गये हैं. लेकिन यह सियासत है. सियासत में जिस तरह कुछ भी संभव है उसी तरह सियासत में पूर्वानुमान भी हर बार संभव नहीं होता.

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