Sumitra Mahajan एक पकाऊ Speaker जो संगमा, सोमनाथ, बालयोगी से कुछ न सीख पायीं

जयंत जिज्ञासु की कलम से

आज की तारीख़ में राजनीति अपनी स्वाभाविक स्वायत्ता धीरे-धीरे खोती जा रही है। पिछले कुछ बरसों या यूं कहें कि तक़रीबन एक दशक से यह कहीं और से निर्देशित-नियंत्रित-संचालित हो रही है। और, जम्हूरियत की सेहत के लिए यह ठीक नहीं है।

भारतीय लोकतंत्र का जिस्म तो बुलंद लगता है, मगर इसकी रूह बड़ी बीमार हो चली है। और, वक्त रहते गर इसकी तीमारदारी नहीं हुई, तो यह खतरनाक स्थिति को पहुंच सकता है। आर जी इगरसोल ने ठीक ही कहा था, “Eternal vigilance is the price of liberty”. यह अपने बरतने वालों से सतत सतर्कता व सजगता की मांग करती है। जिसे हम लोकतंत्र कह रहे हैं,वह दरअसल लोकतंत्र का प्रबंधन है।
 

लोकसभाध्यक्ष की बदलती भूमिका

 
मैंने लोकसभा के कुछ स्पीकर्स को हाउस चलाते हुए क़रीब से देखा है.हंगामे, शोर-शराबे,व्यवधान, कार्यवाही-स्थगन, आदि के बहुत-से दृश्य आज भी मेरे सामने जीवंत हैं। पीए संगमा, जीएमसी बालयोगी,मनोहर जोशी, सोमनाथ चटर्जी और मीरा कुमार जिस शाइस्तगी से सदन चलाते थे, गरिमा टपकती थी।
 
जब संगमा स्पीकर थे और युनाइटेड फ्रंट की सरकार थी तो आइ के गुजराल महिला आरक्षण बिल को लेकर फिर से सदन में आ गए (उनसे पहले देवगौड़ा ने दिल्ली की सिविल सोसायटी की महिलाओं के एक कार्यक्रम में कमिट कर दिया था कि महिला आरक्षण बिल लाएंगे, मगर जब शरद जी ने उन्हें कायदे से समझाया तो पिछड़ी महिलाओं को बाहर रखने का सारा खेल उन्हें समझ में आ गया)।
उस रोज़ शरद यादव ने इतना हंगामेदार व झन्नाटेदार भाषण किया कि प्रधानमंत्री श्री गुजराल को सदन छोड़ कर जाना पड़ा। अपने ही जनता दल, जिसके वो अध्यक्ष थे, से ताल्लुक़ रखने वाले प्रधानमन्त्री के ग़लत मूव पर हाउस के अंदर उन्हें घेरने की ऐसी मिसाल दुर्लभ ही है। तब पीए संगमा ने हाउस में कहा था, “आप लोग मेरे सब्र का इम्तिहान न लीजिए”।
 
हां, लोहिया ने ज़रूर अपनी ही पार्टी की केरल सूबे की सरकार के अनपेक्षित क्रियाकलाप पर इस्तीफ़ा मांगा था और पार्टी टूट गई।
 

पिछड़ी महिला विरोधी मानसिकता

महिला आरक्षण बिल पर भाजपा, कांग्रेस,कम्युनिस्ट पार्टीज़, सब एक हैं, क्यूंकि सबका नेतृत्व अगड़े लीडरों के हाथ में है। पिछड़ी महिलाओं को कोटे के अंदर कोटे के तहत शामिल करने के ये सब खिलाफ़ हैं। बोलते हैं कि संविधान में संशोधन करना पड़ेगा, तो भाई संशोधन नहीं हुआ है क्या आज तक? जैसे पुरुषों में जातियां हैं, ह्युमिलिएशन है, वैसे ही महिलाओं में भी हैं। महिला कोई होमोजिनस कैटेगरी तो है नहीं। किसको उल्लू बनाते रहते हो यार?
 
रानी बनाम मेहतरानी का डिबेट लोहिया ने न सिर्फ़ खड़ा किया, बल्कि उसे जमीन पर उतारा भी। 
 

ऐसे-ऐसे लोकसभा स्पीकर्स

 
बहरहाल, संगमा स्वीट थे, बालयोगी संजीदे, मनोहर जोशी मज़ाकिया भी और संयत भी, सोमनाथ दा प्रखर व दूरदृष्टिसंपन्न, जिन्होंने अपनी पार्टी के दबाव में न आकर लोकसभा अध्यक्ष पद की गरिमा को और बढ़ा दिया, और मीरा कुमार बेहद शीरीं ज़बां।
 

और एक हैं सुमित्रा महाजन

और, एक ये हैं मोहतरमा सुमित्रा महाजन, जिन्हें न रस का कुछ पता है, न सहृदयता छू भी पाई है उन्हें। किसी प्रवाहमय भाषण के बीच ही उनका कुछ बोलना कानों को इतना चुभता है.
 
 
महाजन अब तक की सबसे वर्स्ट व पकाऊ स्पीकर लगीं मुझे। हाउस के अंदर लोकतंत्र के मसखरातंत्र में तब्दील हो जाने के पीरियड का जब ईमानदार अध्ययन होगा, तो महाजन बहुत अजीब व छिछली किरदार होंगी
 
सुमित्रा जी को संचार की कुछ बुनियादी बातों का ज़रूर ख़याल रखना चाहिए। चाहें तो भरत मुनि का नाट्यशास्त्र या आनंदवर्द्धन का ध्वन्यालोक फिर से उलट लें। अरस्तू का रेटोरिक पकड़ कर तो मोदी जी इस क़दर बैठे हैं कि उसका बस कुपाठ ही किये जा रहे हैं और रेटोरिक जैसे ख़ूबसूरत लफ्ज़ को सिर्फ़ मज़ाक का विषय बना दिया है।
 
 
बीते बरस उच्च सदन में ऊना की घटना पर मायावती जी ने मुखर ढंग से बात रखने की कोशिश की, पर उनके आक्रोश पर जब फूहड़पन के साथ कुछ सांसद भावभंगिमा बनाते हैं, और उपसभापति रोक नहीं पाते, तो यह लोकतंत्र के निस्तेज होने की आहट है। यह कचोटने वाली घटना देखकर बी.एन. मंडल द्वारा राज्यसभा में 1969 में दिया गया भाषण बरबस याद आ गया –
 
 
“जनतंत्र में अगर कोई पार्टी या व्यक्ति यह समझे कि वह ही जबतक शासन में रहेगा, तब तक संसार में उजाला रहेगा,वह गया तो सारे संसार में अंधेरा हो जाएगा, इस ढंग की मनोवृत्ति रखने वाला, चाहे कोई व्यक्ति हो या पार्टी, वह देश को रसातल में पहुंचाएगा।
 

लोहिया, मधु लिमये का दौर

 
धारदार बहस की स्वस्थ परंपरा तो जैसे कहीं विलीन ही हो गई हो। क्या ये सच नहीं है कि लोहिया जब आंकड़ों के साथ बोलते थे, तो नेहरू तक असहज हो जाते थे और कई बार निरुत्तर भी। मधु लिमये सदन में जिसकी तरफ आंख उठा कर एक नज़र देख लेते थे, तो लोग सहम जाते थे कि पता नहीं किस पर कौन-सी गाज गिरेगी। इसी हिन्दुस्तान की संसद में एक-से-बढ़कर एक बहसबाज़ हुआ करते थे। आला दर्ज़े की बहसें दर्ज़ हैं इतिहास में। बी. एन. मंडल से लेकर भूपेश गुप्त, न जाने कितने सांसदों ने विमर्श की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के ज़रिये इस मुल्क को गढ़ा। कभी उन नेताओं ने अपनी असहमति को तिक्तता या कटुता की शक्ल नहीं लेने दी।
 
 
मंडल कमीशन पर जो बहस अगस्त 1982 में हुई, उसमें रामविलास पासवान ने देश भर के सचिवों, अधिकारियों,आदि का जातिवार विवरण देते हुए बताया कि सकारात्मक कार्रवाई क्यों ज़रूरी है। इंदिरा गांधी की कैबिनेट में 18 में 9 ब्राह्मण थे। इस पर भी उन्होंने सभी सूबों के मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों की जातीय पृष्ठभूमि की चर्चा की। विषय की गंभीरता को समझते हुए लोग पूरी संज़ीदगी सुनते रहे। किसी ने कोई हंगामा नहीं बरपाया। जब कभी उनके भाषण के दौरान किसी ने हल्की बात कहने की कोशिश की, स्पीकर ने तुरंत कहा कि बहुत अहम मुद्दे पर चर्चा हो रही है, सभी सहयोग करें, मज़ाक न बनाएं। ऐसा नहीं कि उस वक़्त लोग व्यवधान नहीं पैदा करते थे, पर शर्मो-हया का पानी तब बचा हुआ था।
 
 
मूल्यों व मान्यताओं के प्रति प्रतिबद्धतता व अपने साथियों के लिए सदाशयता बाकी थी। आज तो अनुराग ठाकुर बोलते हुए चिल्ला रहे होते हैं तो ठीक उनके पीछे प्रधानमंत्री मोदी हाउस में प्रवेश करते हुए खड़े हो जाते हैं इस देहभाषा के साथ मानो कोई डॉन अपने आदमी से बोलवा रहा हो। किसी बात के लिए खेद प्रकट करना मोदीजी के स्वभाव में नहीं है।
 
 
एक बार चंद्रशेखर ने सदन में कहा था, जो आज सत्ता पक्ष के लोगों को भूलना नहीं चाहिए, “एक बात हम याद रखें कि हम इतिहास के आख़िरी आदमी नहीं हैं। हम असफल हो जायेंगे, यह देश असफल नहीं हो सकता। देश ज़िंदा रहेगा, इस देश को दुनिया की कोई ताक़त तबाह नहीं कर सकती। ये असीम शक्ति जनता की, हमारी शक्ति है, और उस शक्ति को हम जगा सकें, तो ये सदन अपने कर्त्तव्य का पालन करेगा।”
 
 
जब अधिकांश लोग सेना बुला कर लालू प्रसाद को गिरफ़्तार करने पर ‘भ्रष्टाचार’ की ढाल बनाकर चुप्पी ओढ़े हुए थे उस समय चंद्रशेखर ने लालू प्रसाद मामले में जो कहा था, उसे आज याद किये जाने की ज़रूरत है –
 
 
“लालू प्रसाद ने जब ख़ुद ही कहा कि आत्मसमर्पण कर देंगे, तो 24 घंटे में ऐसा कौन-सा पहाड़ टूटा जा रहा था कि सेना बुलाई गई? ऐसा वातावरण बनाया गया मानो राष्ट्र का सारा काम बस इसी एक मुद्दे पर ठप पड़ा हुआ हो। लालू कोई देश छोड़कर नहीं जा रहे थे। जब तक कोई अपराधी सिद्ध नहीं हो जाता, उसे अपराधी कहकर मैं उसे अपमानित और ख़ुद को कलंकित नहीं कर सकता। यह संसदीय परंपरा के विपरीत है, मानव-मर्यादा के अनुकूल नहीं है।
 
 
 
किसी के चरित्र को गिरा देना आसान है, किसी के व्यक्तित्व को तोड़ देना आसान है। लालू को मिटा सकते हो, मुलायम सिंह को गिरा सकते हो, किसी को हटा सकते हो जनता की नज़र से, लेकिन हममें और आपमें सामर्थ्य नहीं है कि एक दूसरा लालू प्रसाद या दूसरा मुलायम बना दें। भ्रष्टाचार मिटना चाहिए, मगर भ्रष्टाचार केवल पैसे का लेन-देन नहीं है।
 
 
सीबीआइ अपनी सीमा से बाहर गयी है। सीबीआइ के एक व्यक्ति ने अपने अधिकार का अतिक्रमण किया था। अगर पुलिस के लोग सेना बुलाने का काम करने लगेंगे, तो इस देश का सारा ढाँचा ही टूट जायेगा। किसी पुलिस अधिकारी का सीधे सेना के पास पहुँचना एक अक्षम्य अपराध है”।
 
 
 
आज गिरते मूल्यों के बीच बहुत कम लोग नज़र आते हैं जिन्हें संसदीय मर्यादा का अनुपालन करने की फ़िक्र है। चंद्रशेखर से लाख असहमति हो, पर वो संसद में डिग्निटी के साथ बहस करना और उसका हिस्सा होना जानते थे। इतनी नम्रता और प्रखरता से वो बात रखते थे कि अटल जी भी बुरा नहीं मानते थे, “अपने अंदर में विभेद हो और सारे देश को एकता का संदेश दिया जाय, यह बात कुछ सही नहीं दिखाई पड़ती”। पहले ऐसा इसलिए भी संभव हो पाता था कि लोकसभा अध्यक्ष भी उसी निष्पक्षता से अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते थे।
 
 
आज जैसा माहौल बना दिया गया है, उसमें क्या कोई सोच भी सकता है, जो बात सहजता से चंद्रशेखर कह जाते थे, “अध्यक्ष जी, युद्ध बुरा खेल है, मैं प्रधानमंत्री जी से कहूंगा कि वो हमसे लड़ लें, मगर पाकिस्तान से लड़ने की जिद न करें। हम शांतिप्रिय लोग हैं, मगर हममें से जो बयानवीर लोग सीमा पर जाना चाहते हैं, उन्हें वहां भेज दें, मुझे कोई एतराज़ नहीं है। Nations are not run by ballot and bullet, but by the will power of the people.और, याद रखिए कि चापलूसों और समर्थकों में बहुत थोड़ा अंतर होता है। There’s very thin line between supporters and flatterers.”
 
 
आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो मौजूदा वज़ीरे-आज़म की ओर से लगातार ऐसी भाषा का प्रयोग किया जाता है जो मर्यादा की सारी सीमाएं लांघती नज़र आती है। आज़ाद भारत के71 साल के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है किसी प्रधानमन्त्री के भाषण में से असंसदीय हिस्से को कार्यवाही से निकाला गया हो। मौक़ा था राज्यसभा के उपसभापति चुनाव का। जब हरिवंश जी चुनाव जीत गए और कांग्रेस के बीके हरि हार गए, तो नरेंद्र मोदी ने फूहड़ मज़ाक किया,बीके हरि जी, नहीं बिके… राजद सांसद प्रो. मनोज झा के प्वाइंट आफ आर्डर के बाद उस पोर्शन को एक्सपंज कर दिया गया।
 

अब लोग पीएम को भी गंभीरता से नहीं लेते

वर्तमान प्रधानमंत्री के आने से जो सबसे बड़ा नुक़सान इस जनतंत्र को हुआ है, वो ये कि पहली बार लोगों ने प्रधानमंत्री को गंभीरता से लेना छोड़ दिया है। ऐसा तो देवगौड़ा जिन्हें झूठे ही कमज़ोर प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित किया गया; के साथ भी नहीं था। 

सदन की रिवायत

नेशनल कांफ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला का जब सदन के अंदर स्पीच होता है, तो जिस अंदाज़ में लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन उन्हें बार-बार टोकती हैं, उससे लगता है कि लालू-शरद-सुषमा के मेयार की स्पीचेज़ अब गुज़रे ज़माने की बात होगी जिनके लिए दूसरी पार्टी के लोग भी अपना टाइम दे दिया करते थे, मगर उनके फ्लो को तोड़ते नहीं थे। यही हमारे सदन की रिवायत भी रही है और गरिमा भी जहां लोकतंत्र में परस्पर विरोधी होते हुए भी कोई अदावत नहीं होती थी। अब तो संसद के कोरिडोर में ईडी-सीबीआई-इनकम टैक्स का डर दिखा कर विरोधी दल के नेताओं को धमका-हड़का तक दिया जाता है, और दल का मर्जर होते-होते रह जाता है। राजनीति में भ्रूणहत्या इसे ही तो कहते हैं।
 

भाजपा प्रवक्ता बन जाती हैं सुमित्रा

कल क़िस्सा राफ़ेल का कुछ ऐसा छाया रहा कि हिन्दुस्तान की लोकसभा में विचित्र दृश्य उपस्थित हो रहा था। स्पीकर की जगह बैठी सुमित्रा महाजन बीजेपी प्रवक्ता का रौद्र रूप धारण कर बैठीं, रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने मौन धारण कर लिया और उनकी जगह वित्त मंत्री अरुण जेटली की जिह्वा पर साक्षात् सरस्वती विराजमान हो गई। लालू जी ने ठीक ही कहा था, “ऐसा कोई प्रधानमन्त्री देखा है?”
 
 
कुल मिलाकर, यह समय मसखरों के लगातार छाने और मंडराने की आहट के साथ हमारे सामने है। किसी रोज़ पूरा तंत्र ही कहीं मसखरा तंत्र में न तब्दील हो जाए, संकट इसी बात का है।
 
गोपाल दास नीरज ने ठीक ही कहा –
 
 
न तो पीने का सलीक़ा न पिलाने का शऊर
 
ऐसे ही लोग चले आए हैं मैख़ाने में।
 
 
– जयन्त जिज्ञासु जेएनयू के  सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ में रिसर्च स्कॉलर हैं.

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