अतुल चौरसिया उत्तर प्रदेश की नौकरशाही की उस नब्ज को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं जो दर्शाती है कि आईएएस-आईपीएस अधिकारियों में जातिवाद कैसे परवान चढ़ी.maya

जातिवाद पर बंटवारा ब्यूरोक्रेसी में कोई नई बात नहीं है. जो अधिकारी एक साथ मिलकर दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन का विरोध करने मुख्यमंत्री के पास जाते हैं, वही अधिकारी प्रमोशन में आरक्षण जैसे मुद्दे पर एक-दूसरे के घनघोर विरोधी बन जाते हैं. जातिवाद का एक और चलन भी आजकल उभार पर है. दूसरे कैडरों के ऐसे तमाम अधिकारी हैं जिन्होंने सपा की सरकार बनने के बाद लखनऊ कूच कर दिया है. इनमें से ज्यादातर अधिकारी यादव हैं या फिर वे जो सपा के करीबी हैं. अनूप यादव (महाराष्ट्र कैडर), यशस्वी यादव (महाराष्ट्र कैडर), धर्मेंद्र यादव (महाराष्ट्र कैडर) आदि. जाहिर है कि ये अधिकारी सिर्फ सामाजिक सेवा या भलमनसाहत में उत्तर प्रदेश का रुख नहीं कर रहे हैं. इन्हें एक विश्वास है जिसके भरोसे इन्होंने लखनऊ का रुख किया है.

कह सकते हैं कि विभिन्न कैडरों से अधिकारियों का आना-जाना लगा रहता है. पर उत्तर प्रदेश में जो चलन दिख रहा है वह कुछ और भी इशारे करता है. आखिर ये सारे अधिकारी यादव ही क्यों हैं या फिर सिर्फ यादव अधिकारियों को क्यों कैडर बदल कर यूपी लाया गया. इससे पहले इन अधिकारियों ने बसपा के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश का रुख करने की इच्छा क्यों नहीं जताई? ये ऐसे सवाल है जिनका जवाब देना बहुत आसान हैं. जब तक अपने मतलब की सरकार है तब तक यहां हैं, जैसे ही हवा का रुख बदलेगा ये अपने मूल कैडर में लौट जाएंगे. एक बार फिर से वही बात सामने आती है कि इस खेल में दोनों एक-दूसरे को फायदा पहुंचा रहे हैं.

पतन की प्रक्रिया

वैसे स्थितियां हमेशा से ऐसी नहीं थीं. नब्बे के शुरुआती दशक में प्रदेश के सारे आईएएस गुप्त मतदान के जरिए अपने बीच से तीन सबसे भ्रष्ट आईएएस अधिकारियों का चुनाव करते थे. यह एक साहसिक कदम था. सुब्रमण्यम कहते हैं, ‘क्या आप किसी दूसरे पेशे में इस तरह की किसी प्रक्रिया का नाम भी ले सकते हैं? कोई समुदाय, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, जज या कोई भी ऐसा है जो अपने ही पेशे के लोगों पर इस तरह से लगाम कसने की कोशिश करता है?’ निश्चित रूप से यह एक साहसिक और ईमानदार प्रक्रिया थी, लेकिन यह कायम नहीं रह सकी. इसकी वजह यह रही कि बाद के सालों में ऐसा भी देखने में आया कि जिन अधिकारियों को भ्रष्ट चुना गया था उन्हें सरकारों ने प्रदेश के सबसे बड़े पद (मुख्य सचिव) से नवाजा. पतन की इस प्रक्रिया को अगर हम एक नए सिरे से समझें तो नब्बे के दशक में आईएएस एसोसिएशन द्वारा अपनाई गई यह प्रक्रिया असल में एक प्रतिक्रिया थी. यह प्रतिक्रिया अस्सी के दशक में ही शुरू हो चुके राजनीति के अपराधीकरण और अपराधी नेता और नौकरशाह के आपसी रिश्तों की प्रगाढ़ता को कुंद करने की नीयत से खड़ी हुई थी.

पर नेताओं और भ्रष्ट अधिकारियों के मजबूत गठजोड़ ने इसे टिकने ही नहीं दिया. बाद के दौर में हमने यह भी देखा कि भ्रष्ट अधिकारी का चयन तो दूर एसोसिएशन के चुनाव तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया. उसी दौरान पूर्व नौकरशाह और इन दिनों जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोहरा ने कहा था, ‘जनता के सेवक असल में नेताओं के निजी सेवक बन गए हैं. अगर इस व्यवस्था में सफल होना है या सर्वाइव करना है तो पहली बलि उस अधिकार की देनी होगी जिसे सरदार पटेल ने नौकरशाहों का असहमति का अधिकार माना था. आज राजनीतिक वर्ग ने नौकरशाहों के असहमति के अधिकार की परिभाषा बदलते हुए इसे अपने व्यक्तिगत अपमान का मामला बना दिया है. लिहाजा समझदार अधिकारियों ने अपने लिए राजनीतिक ठिकाने ढूंढ़ लिए हैं.’

साभार तहलका

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