मीडिया में महिलाओं की चमकती तस्वीर और सकारात्मक खबरों की होड़ लगी है. लेकिन सदियों से महिलायें गुलाम थीं और अब भी हैं. तब सती और देवदासी के नाम पर तो आज डिजिटल युग में दैहिक व मानसिक शोषण  का अलग चेहरा है. 
–तबस्सुम फातिमा 
 एक तरफ नये अविष्कार, नई टेकनालोजी और रेस में भागती हुई अंध्ी दुनिया है, दूसरी ओर इस दुनिया में अमेरीकी साम्राज्यवाद से लेकर उग्र रूप लेते आतंकवाद की चरम सीमा भी मौजूद है। वैश्विक विकास की अनन्त सीमाओं को देखने के बाद इसी युग में जब महिलाओं की बात आती है तो यह समूचा विश्व एक ऐसे बौने या मजाक में परिवर्तित हो जाता है, जिस पर दिल खोल कर हंसा भी नहीं जा सकता।
भारत, पाकिस्तान ही क्यों- यह बेहतर समय है, महिलाओं की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति को फोकस में लाने के लिए। क्योंकि यूरोप से अमेरिका तक, बाजारवाद से राजनीति तक- वे मौजूद है, मारे जाने के लिए। तिरस्कार के लिए। बलात्कार से लेकर पुरूष मांसिकता के दोगले रवैÕये तक- वे केवल इस्तेमाल हो रही हैं, या उनका हर सतह पर मांसिक और दैहिक शोषण किया जा रहा है।
यह सोचने का समय है कि क्या सचमुच आज की महिलाएं अतीत के भयानक और काले पन्नों से मुक्ति पा चुकी है? जब वे दासी या गुलाम होती थीं और एक बड़े बाजार में उनकी बोली लगाई जाती थी। पति की मृत देह के साथ वे सती हो जाती थीं। या देवदासी या इस तरह के हजारों नाम और उपमाओं के साथ उनका दैहिक शोषण होता था। समय के पन्नों पर बाजार बदला है और बाजारवाद का चेहरा लेकिन 2018 तक आते-आते भी स्थितियां सामान्य नहीं हैं। आज वे अध्कि तादाद में शिक्षित हैं। लेकिन पिफल्म, माॅडलिंग, ध्र्म, समाज और राजनीति के बाजार में आज भी वे एक ऐसा ब्रांड है, पुरूषों का समाज जिसे नंगा करने, कपड़े उतारने और उनकी मजबूरियों को इस्तेमाल करने में ही अपने पौरूष का अहंकार देखता है।
अन्तर्राष्ट्रीय महिला पफोरम या संयुक्त राष्ट्रसंघ तक महिलाओं की ज्वलंत समस्याओं पर चर्चा जरूर करता है, लेकिन भीख के कटोरे में रखी क्षणिक हमदर्दी के अतिरिक्त महिलाओं को कुछ भी हासिल नहीं होता। समूचा विश्व महिलाओं के लिए कंध्े से कंध मिला कर खड़े होने का नाटक जरूर करता है, मगर कोई भी सकारात्मक विकल्प महिलाओं की प्रतिष्ठा, आजादी, लक्ष्य, पहचान और समाज से राजनीति तक हर तरह की भागीदारी का मार्ग प्रशस्त नहीं करता।
हर रोज दामिनी व निर्भया
भारत में भी देखें तो महिला आरक्षण बिल से लेकर महिला सुरक्षा के नाम की बयानबाजियां तो होती हैं, पिफर यह बयान भी ठंडे बस्त में डाल दिये जाते हैं। जरा सोचें, इसी देश में महिलाओं को प्रतिष्ठा और सम्मान दिलाने का एक कार्यव्रफम एक ऐसे आंदोलन से जोड़ दिया जाता है, जिसकी पृष्ठभूमि में एक भयानक बलात्कार के स्याह पन्ने छिपे होते हैं। दामिनी या निर्भया से उपजे विवाद के एक सप्ताह बाद ही इंडिया गेट की रहस्यमय खामोशी यह ऐलान कर जाती है कि महिलाओं को लेकर कोई व्रफांति इस देश में जन्म नहीं लेने वाली। क्योंकि पुरूषवादी बारूदी सभ्यता में आज के युग में भी महिलाएं किसी विचार या नजरिये का नाम नहीं, एक देह का नाम हैं, जिस पर ललचाने वाले मांसाहारी गि( हैं और काट खाने वाला विषैला पुरूष समाज। इसलिए स्थितियां न भारत में बदल सकती हैं, न विश्व के किसी देश में। यह दूर्भाग्यपूर्ण है, जो कहा जाता है कि महिलाएं अपनी स्थिति के लिए स्वंय जिम्मेदार हैं। प्रश्न है, आप उसे उठने ही कहां देते हैं? कला साहित्य से राजनीति तक वह उठना चाहती है तो सबसे कमजोर हमला उसके चरित्रा को लेकर होता है।
कहां है अधिकार
अतीत से वर्तमान तक, भारत से समूचे विश्व तक कुछेक महिलओं के सत्ता संभालने, सत्ता में हिस्सेदारी को महिला-सशक्तिकरण से जोड़ कर मत देखिये, क्योंकि विकासशील देशों में अभी भी महिला-शक्ति का प्रतिशत 100 में दो का आंकड़ा भी नहीं छू पाया है। अभी भी समान कार्याें के लिए एक महिला पुरूष से 50 प्रतिशत कम का वेतन पाती हैं। विश्व के 87 करोड़ 50 लाख निरक्षरों में दो तिहाई से भी बड़ी संख्या महिलाओं की है। और लज्जा व खेद का विषय है कि आज भी वो अपने अध्किारों और सुरक्षा के लिए हाशिये पर खड़ी है, जहां से हो कर उसकी अपनी स्वतंत्राता और इच्छाओं का कोई रास्ता अभी भी नहीं जाता।
एक अंध्ेरे भविष्य के साथ समाधन या विकल्प का कोई रास्ता किसी भी देश के पास नहीं है। यह कोई लड़ाई नहीं है, जो महिलाओं को खुद लड़नी है। इस हकीकत को भी समझें कि पुरूष सत्तात्मक समाज की नीयत आज भी महिलाओं से संबंध्ति किसी समाधन को ढूंढने की नहीं है। यह एक नाटक है जो शताब्दियों से अनवरत चलता आ रहा है और चलता रहेगा। यह साम्राज्यवादी, विकासशील देशों का ड्रामा है, जो अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के नाम पर महिलाओं को झूठा दिलासा देने, उनका परिहास उड़ाने के नाम पर किया जाता है।
असलियत में, इस नाटक के केन्द्र में यह बताना होता है कि स्वतंत्राता और अध्किारों की लड़ाई छोड़ कर महिलाएं पुरूषों के अध्पित्य को स्वीकार क्यों नहीं करतीं? शक्तिकरण और बड़ी पहचान की दो-चार मिसालों को विश्व की समूची महिलाओं की स्थिति के साथ जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। अतीत का अंध्ेरा नये अंध्ेरे के रूप में महिलाओं के वर्तमान और भविष्य पर अभी भी अंकुश लगाये है और इस घने अंध्ेरे से निकलने का रास्ता भी नहीं है। क्योंकि पुरूष अपनी साम्राज्यवादी मांसिकता और अपनी शासकीय प्रवृति से पराजित या बेदखल होने को तैयार नहीं।
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By Editor