Surgical Strike:क्या तेजस्वी में खुदको लालू का उत्तराधिकारी साबित करने का माद्दा है?

Tejashwi
तेजस्वी के सामने असल चुनौती आगे है

तेजस्वी व अखिलेश यादव एक जैसी परिस्थितियों में सत्ता शीर्ष तक पहुंचे.अखिलेश अपनी विरासत को बचाने में लगातार 3 बार से विफल  हो रहे हैं तो तेजस्वी ने पहली जंग हारी है.

 

गोपालगंज से रायसीना पुस्तक में  प्रसाद ने अपने संघर्षों की कहानी कलमबंद की है.इस पुस्तक में उन्होंने बताया है कि शिक्षा, संसाधन और राजनीतिक संरक्षण के अभाव में जी रहे एक साधारण परिवार में जन्मा लालू कैसे सत्ता शीर्ष तक पहुंचा. लालू प्रसाद की सबसे बड़ी ताकत उनकी राजनैतिक विचारधारा पर, अंजाम की परवाह किये बिना डटे रहना थी.

 

आज सवाल यह है कि क्या तेजस्वी यादव अपने पिता की राजनैतिक परम्परा, जो लगातार कमजोर पड़ती जा रही है, को बचा पायेंगे?

 

इस सवाल के जवाब पर गौर करते समय अखिलेश यादव का उदाहरण आंखों के सामने झलकने लगता है. लालू और मुलायम 80 के आखिरी दशक में जमीनी संघर्ष के प्रतीक के रूप में उभरे थे. दोनों लगभग एक ही काल में दो प्रमुख राज्य बिहार व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे. दोनों ने समाजवादी विचारधारा के नये नायक बन कर निखरे थे.

 

अखिलेश व तेजस्वी की परिस्थितियों में समानता

मुलायम ने 2011 में तो लालू ने 2015 में सीधे अपने बेटे को सत्ता के शीर्ष पर बिठा दिया था. अखिलेश सीधे मुख्यमंत्री बने तो तेजस्वी उपमुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुए. अखिलेश 2017 में बुरी तरह से हारे और मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवा बैठे. उससे पहले 2014, में लोकसभा के चुनाव में उनके नेतृत्व की दुर्गति हो चुकी थी. अखिलेश का रहा-सहा कसर 2019 के लोकसभा चुनाव ने पूरा कर दिया. कहने का साफ अर्थ है कि अखिलेश अपने पिता के साये से अलग हो कर जितने भी चुनाव लड़े उसमें उनका पतन ही होता चला गया.

अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव की राजनीतिक परिस्थितियाों में समानता का एक और पहलू भी है. अखिलेश को पहली चुनौती उनके परिवार से ही मिली. अखिलेश के चाचा ने बड़ी मुश्किलें खड़ी की तो 2019 के चुनाव में तेजस्वी के भी परिवार के अंदर से ही बाधायें सामने आयीं.  तेजस्वी को इन बाधाओं को पार करना है.

 

अखिलेश अब तक फेल रहे,  तेजस्वी की परीक्षा बाकी

लेकिन अखिलेश और तेजस्वी की स्थितियों में एक फर्क यह है कि अखिलेश लगातार तीन चुनाव के हार का सामना कर चुके हैं. इस दृष्टिकोण से देखें तो तेजस्वी यादव की परीक्षा होना अभी बाकी है. 2015 में सत्ता शीर्ष ( उपमुख्यमंत्री व राजद विधायक दल के नेता) बनने के बाद तेजस्वी ने, अपने पिता लालू प्रसाद की छत्र-छाया से अलग रह कर एक उप चुनाव और एक आम चुनाव लड़ा है. उपचुनाव में तेजस्वी के नेतृत्व में राजद ने दमदार वापसी की थी. भाजपा व जदयू की जोड़ी को राजद ने अकेले दम पर मात दे दी थी.

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इस जीत ने तेजस्वी में  गजब का आत्मविश्वास भरा था क्योंकि नीतीश कुमार की लोकप्रियता और नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता को चुनौती देना कोई मामलूी काम था भी नहीं. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में जिस तरह से राजद को धूल चाटनी पड़ी, वह अपने आप में  दिन में तारे दिखने जैसा था.

 

अब सवाल यह है कि क्या तेजस्वी यादव, बिहार के अखिलेश यादव साबित होंगे? हम फिर से दोहराते चलें कि अखिलेश अपनी कयादत में 2014, 2017 और 2019 की जंग बुरी तरह हार चुके हैं. और अब आने वाले समय में अखिलेश की वापसी की संभावना पर कुछ भी कहना आसान नहीं है.

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पर यहां यह जोर दे कर जरूर कहा जा सकता है कि तेजस्वी यादव का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि वह अखिलेश यादव द्वारा की गयी गलतियों को नहीं दोहरायें तो अपनी कामयाबी की बड़ी लकीर खीच सकते हैं.

वचिारधारा से हटे तो पतन के शिकार हुए अखिलेश

 

अखिलेश की सबसे बड़ी दिक्कत यह साबित हुई है कि वह  जिस राजनीतिक विचारधारा की विरासत- समाजवाद व सोशल जस्टिस के उत्तराधिकारी बने थे, उस विचारधारा को उन्होंने तिलांजलि दे दी. ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ व ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ की विचारधारा से उन्होंने पूरी तरह नाता तोड़ लिया है. वह चुनावी जीत के लिए इंफ्रास्ट्रक्चरल डेवलपमेंट को अचूक हथियार मानने के मुगालते में पड़ गये. नतीज सामने है.

सामाजिक न्याय व सेक्युलरिज्म ही है तेजस्वी का विक्लप

अब , तेजस्वी यादव की बात करें. तेजस्वी की राजनीतिक शैली को जो लोग बारीकी से देखते हैं, वे बता सकते हैं कि वह एक स्पष्ट वैचारिक दृष्टि रखते हैं. इसकी एक मिसाल यह भी है कि 2019 का चुनाव हारने के बाद लगभग एक महीने सार्वजनिक मंचों से दूर रहे तेजस्वी ने जो अपना पहला ट्वीट किया उसमें उन्होंने साफ संकेत दिया कि जो लोग समाजवादी, सेक्युलर व सामाजिक न्याय की विचारधारा के पैरोकार हैं हम उनके प्रति पूरी तरह जिम्मेदार हैं और इस विचारधारा की लड़ाई को और भी मजबूती व नयी ऊर्जा से लड़ने को तैयार हैं.

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तेजस्वी के सामने फिलवक्त दो चुनौतियां हैं- एक भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे से लोहा लेना. दूसरा नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग के सामने नया विकल्प तैयार करना. अगर नीतीश व भाजपा सामूहिक रूप से मैदान में होंगे तो तेजस्वी के लिए भले ही यह चुनौती गंभीर होगी पर यह सियासी जंग तेजस्वी के लिए एक बड़ा अवसर भी दे सकता है.

 

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या तेजस्वी इस साहसिक लड़ाई के लिए मानसिक रूप से तैयार हैं ? इसका पता तो आने वाले दिनों में ही चलेगा. अब देखना है कि तेजस्वी अखिलेश की नाकामियों से कितना सबक लेते हैं.

 

 

 

 

 

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