उत्तर प्रदेश में नागरिकता कानून के विरोध में प्रदर्शन के दौरान हिंसा के बाद राज्य सरकार ने PFI Popular Fron of India पर बैन लगाने की सिफारिश केंद्र सरकार से की है.

प्रतिबंध के बहाने क्या योगी सरकार PFI के आंचल में अपने गुनाह छुपाा रही है?

उत्तर प्रदेश में नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान पुलस हिंसा को योगी सरकार जस्टिफाई करने के लिए PFI पर प्रतिबंध लगाने का बहाना तो नहीं कर रही?

उत्तर प्रदेश में नागरिकता कानून के विरोध में प्रदर्शन के दौरान हिंसा के बाद राज्य सरकार ने PFI Popular Fron of India पर बैन लगाने की सिफारिश केंद्र सरकार से की है.

इस खबर पर देश भर में चर्चा चल रही है और मीडिया की खबरों में संभावना जताई जा रही है कि केंद्र सरकार PFI पर प्रतिबंध लगाने का फैसला ले सकती है. उत्तर प्रदेश में दिसम्बर के तीसरे सप्ताह में CAA के विरोध में हुए प्रदर्शन में बड़े पैमान पर हिंसा हुई थी. इस दौरान पुलिस ने स्वीकार किया था कि 19 लोगों की मौत हुई. उधर पुलिस पर आरोप  लगे कि उसने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं. जबकि पुलिस का कहना है कि प्रदर्शनाकारियों ने हिंसा की.

PFI के बारे में

PFI कीस्थापना केरल में 2006 में हुई थई. अपने परिचय में संगठन ने लिखा है कि पीएफआई समाज में बराबरी, दबे कुचले के अधिकार के लिए संघर्षरत संगठन है जो वंचितों के सामाजिक, राजनीतिक उत्थान के लिए काम करता है. हालांकि पीएफआई के आलोचक उसे एक मुस्लिम अतिवादी संगठन होने का आरोप लगाते हैं.

कोई भी संगठन अगर हिंसा में लिप्त है, गैरकानूनी गतिविधियों में शामिल है और अगर सरकार के पास उसके साक्ष्य हैं तो उस संगठन पर पाबंदी लगाना सही है. लेकिन उत्तर प्रदेश में हुए प्रदर्शनों के दौरान हुई हिंसा में पुलिस का दामन खुद दागदार हुआ है. राष्ट्रव्यापी स्तर पर पुलिस की आलोचना हुई है क्यों कि अब तक दर्जनों ऐेेसे विडियो सामने आ चुके हैं जिनमें देख जा सकता है कि पुलिस गोली चला रही है, कई लोगों के घरों के दरवाजे तोड़ कर घुस रही है और घरों के लाखों के सामन को तहसनहस कर रही है.

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‘योगी सरकार अपने खूनखराबे पर पर्दा डालने के लिए PFI पर प्रतिबंध लगाना चाहती है’

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ऐसे हालात में योगी सरकार ने पीएफआई को चिन्हित किया है औक दावा किया है कि इस संगठन के 25 लोगों को हिरासत में लिया गया है. पुलिस यह भी दावा कर रही है कि PFI  के कार्यकर्ताओं ने हिंसा के लिए लोगों को उकसाया. अगर पुलिस के पास इस संगठन के खिलाफ सुबूत हैं तो उसे कार्वाई करनी चाहिए. लेकिन उसे यह भी याद रखना चाहिए कि झारखंड में रघुबर दास की तत्कालीन सरकार ने इस संगठन को प्रतिबंधित किया था पर अदालत में वह उसके खिलाफ साक्ष्य नहीं जुटा पाई थी जिसके बाद अदालत ने उस प्रतिबंध को निरस्त कर दिया था.

हालांकि फर्स्ट पोस्ट नामक वेबसाइट ने इस मामले में आधा धूठ का सहारा ले कर लोगों को गुमराह किया है उसने अपनी खबर में लिखा है कि झारखंड में इस संगठन को 2018 में बैन कर दिया गया था. लेकिन इस वेबसाइट ने यह नहीं लिखा कि झारखंड की अदालत ने पीएफआई के खिलाफ राज्य सरकार द्वारा साक्ष्य नहीं जुटा पाने के कारण प्रतिबंध हटा लिया था.

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रघुबर सरकार की पिटी भद्द, झारखंड हाईकोर्ट ने PFI से प्रतिबंध हटा दिया

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द वायर में केलर के पूर्व डीजीपी एनसी अस्थाना ने पीएफआई पर योगी सरकार द्वारा बैन की सिफारिश मामले में अपने लेख में गंभर सवाल उठाते हुए पूछा है कि इस संगठन ने अगर दो तीन साल की अल्प अवधि में अपने पैर पसारे हैं और हिंसक गतिविधियों को अंजाम दिया है तो यह गुप्तचर एजेंसियों और राज्य सरकार की असफलता है. आस्थाना ने तो यहां तक सवाल उठाया है कि इंटेलिजेंस एजेंसियों को कैसे भनक नहीं लगी और पीएफआई ने अपने पैर पसार लिये. अगर वे कहते हैं कि उन्हें भनक थी तो ऐसे में इंटेलिजेंस एजेंसियों की ही गलती है कि उसने इस पर कोई कार्रवाई पहले ही क्यों नहीं की.

PFI की प्रतिक्रिया

PFI के प्रदेश महासचिव ने कहा कि हाल की रिपोर्ट के अनुसार, यूपी पुलिस चीफ ने यह बताया है कि उत्तर प्रदेश राज्य ने केंद्र से पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। हम इस क़दम की निंदा करते हैं, जो कि ‘अपने किरदार पर पर्दा डालने’ के सिवा कुछ नहीं है। हम उन्हें यह बताना चाहते हैं कि उनका खून-ख़राबा, निर्दोषों को प्रताड़ित करना और उनकी जायदादों को नुकसान पहुंचाना पूरी दुनिया की नज़रों के सामने है।
 PFI ने कहा कि यूपी में जो कुछ भी हुआ या हो रहा है उसे देश का बच्चा-बच्चा जानता है। देश की लोकतांत्रिक चेतना उन्हें उनके अपराधों की क़ीमत चुकाने पर ज़रूर मजबूर करेगी।

 

 

By Editor