सीमांचल और तस्लीमुद्दीन एक दूसरे के पूरक थे. तस्लीमुद्दीन ने चाहे लालू प्रसाद के साथ रह कर सियासत की या नीतीश कुमार के साथ. पर कभी भी उन्होंने किसी नेता के रहमो करम पर सियासत नहीं की. जब भी चली, उनकी जिद्द चली, उनकी शर्तें चलीं और उनकी मर्जी चली.
सेराज अनवर की कलम से
आज सीमांचाल यतीम हो गया. बिहार के अल्पसंख्यक बहुल जिले कटिहार, पूर्णिया, अररिया, किशनगंज की मुस्लिम राजनीति को धार देने वाले ईलाक़ाई गांधी के गुज़र जाने से यहाँ की सियासत फ़िलहाल शून्य की स्तिथि में है.
आज अल्लाह को प्यारे हो गये तस्लीमुद्दीन
वो कटिहार छोड़ पूर्णिया, किशनगंज, अररिया से सांसद निर्वाचित होने वाले पहले मुस्लिम नेता थे. दिवंगत नेता ने पूरी ज़िंदगी अपने बूते, अपनी मर्ज़ी से राजनीति की. कभी सीमांचाल की राजनीति का पैहिया तस्लीम उद्दिन की मर्ज़ी से घूमता था.पार्टी कभी उनके लिए मायने नहीं रखती थी. राजनीति अपनी शर्त पर करने का उन्हें हुनर मालूम था. लड़ाकू मिज़ाज के थे. लड़ते- भिड़ते चले गए. जीवन भर में शायद एक दो बार ही पराजित हुए. हारना उन्हें पसंद नहीं था. ज़िद्दी थे. सुना कि, ईलाज के दौरान डाक्टर से डिबेट कर बैठे थे. पार्टियों ने जब टिकट काट दिया तो निर्दलीय लड़ अपनी ही पार्टी की औक़ात बताने से भी पीछे नहीं हटे.
कई बार निर्दलीय ही जीते. सोशलिस्ट पार्टी से राजनीति शुरू की अभी राजद में थे. देवगौड़ा की सरकार में गृह राज्यमंत्री बनाए गए. मगर मात्र 39 दिन ही पद पर रहे. कारण कि, बाबरी मस्जिद पर मंत्री होते हुए मुसलमानों का पक्ष रख दिया था. विपक्ष ने इसको मुद्दा बना दिया, भाजपा को मौक़ा हाथ लग गया. नतीजा, तस्लीम उद्दिन को इस्तीफ़ा देना पड़ा.
आपराधिक मामले
आपराधिक मामले भी उछाले गए. वही तस्लीम उद्दिन मनमोहन सरकार में पुनः केन्द्रीय मंत्री बन गए. बंगलादेशी घुसपैठिया का मुद्दा सीमांचाल में रोहिंग्या मुसलमानों जैसा ही रहा है. तस्लीम उद्दिन ने बड़ी लड़ाई लड़ कर हज़ारों मुसलमानों को पहचान दिलाई. इसीलिए वो सीमांचाल के गांधी कहलाये. मुस्लिम बहुल सीमांचाल के शोषित- पीड़ित आवाम की पीड़ा को को मुख्य रूप से तस्लीम उद्दिन ही अभिव्यक्ति देते रहे . उनके हक़ की लड़ाई को अंजाम तक पहुँचाने में इनकी अहम भूमिका रही है. यह दीगर बात है की सरकारों की नियत और नियति ने सीमांचल को पिछड़ेपन से उबरने नहीं दिया.तस्लीम उद्दिन की राजनीतिक दास्तान कम दिलचस्प नहीं है.अररिया जिले के सिसौना गाँव के रहने वाले मुहम्मद तस्लीमउद्दिन की प्रारम्भिक दिनों में राजनीति में दिलचस्पी नहीं थी.दस साल की उम्र रही होगी कि 1950 में इनके पिता की हत्या भूमि विवाद में कर दी गयी. पिता सम्पन्न किसान थे. पिता की हत्या के बाद पूरी ज़िम्मेवारी इन पर आ गयी. गाँव के दुश्मनों से लोहा लेने केलिये दो साल बाद 1952 में इन्होंने सोशलिस्ट पार्टी का झंडा थाम लिया.
मुखिया से राजनीतिक सफर का आगाज
ग्राम पंचायत के मुखिया चुने गए, फिर सरपंच भी बने.1964 में सोशलिस्ट पार्टी के दो दिग्गजों डॉक्टर राम मनोहर लोहिया और अशोक मेहता के बीच जब विवाद गहरा गया तब तस्लीम उद्दिन अशोक मेहता के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए.1969 में जोक़ीहाट विधान सभा सीट से उपचुनाव में कांग्रेस ने इन्हें उम्मीदवार बनाया और वो जीत भी गए. मगर पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष डूमर लाल बैठा से तकरार के बाद कांग्रेस को इन्होंने 1972 में छोड़ दिया.उसी साल जोक़ीहाट से ही निर्दलीय चुनाव लड़े और जीत भी गए.1977 में जनता पार्टी की टिकट से विधायक निर्वाचित हुए.1980 में चौधरी चरण सिंह की पार्टी लोकदल, 1984 में चंद्रशेखर की जनता पार्टी से विधायक निर्वाचित हुए.1989 में वी पी सिंह की जनता दल के पूर्णिया संसदीय सीट से उम्मीदवार बनाए गए, विजयी हुए. दो साल बाद हुए संसदीय चुनाव में लालू प्रसाद ने वादा कर इनका टिकट काट दिया. सैयद शहाबुद्दीन को उमम्मीदवार बना दिया.
मुलायम के साथ
तस्लीम उद्दिन ने मुलायम सिंह यादव का दामन थाम पूरे सीमांचल की बंजर भूमि में समाजवाद का बीज ऐसा बोया कि 1995 के विधान सभा चुनाव में जनता दल का लगभग सफ़ाया ही कर दिया. मजबूरन लालू को पुनः पार्टी में शामिल करना पड़ा.1996 में किशनगंज से पार्टी ने तस्लीम उद्दिन को उम्मीदवार बनाया और वो लोकसभा पहुँच गए.
अभी अररिया से राजद के सांसद थे. बीच में राजद छोड़ जदयू में चले गए थे. मगर नीतीश कुमार ने लालू से अलग करने बाद कोई ख़ास भाव नहीं दिया.तस्लीम उद्दिन बेबाक़ नेता थे. किसी से नहीं डरते थे. सब उनसे डरते थे. पप्पू यादव से लेकर शाहनवाज़ हुसैन तक सब उनकी सियासत से ख़ौफ़ खाते थे. पप्पू ने मधेपूरा का रूख कर लिया तो शाहनवाज़ भागलपुर में सिमट गए. शाहनवाज़ एक बार किशनगंज से जीते भी. पप्पू सीमांचल में पाँव पसारने के प्रयास में थे.
तस्लीम उद्दिन ने राजनीति में बहुत चेले- चापाटी पैदा किए मगर बेटे सरफ़राज़ उनके धूल के बराबर नहीं हैं. अब देखना शेष है कि सीमांचाल की सियासत तस्लीम उद्दिन के बेग़ैर क्या रूख अख़्तियार करती है. मुसलमानों में ऐसे विरले नेता कम ही पैदा होते हैं जो अपनी ज़िद से सियासत का रूख मोड़ दे.
तस्लीम साहब को मेरा आख़री सलाम
सेराज अनवर
रेज़िडेंट एडिटर
फ़ारूक़ी तनज़ीम, पटना