बिहार बजट पेश करते समय वित्त मंत्री सुशील मोदी की छपी तस्वीर में जो उनकी मुस्कान है, उसके पीछे नीतीश सरकार की, अल्पसंख्यकों के साथ ऐसी नाइंसाफी छिपी है जिसकी मिसाल खुद नीतीश के 13 साल के शासन में पहले कभी नहीं देखी गयी. अचानक इतने क्यों बदल गये हैं नीतीश?
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[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2016/06/irshadul.haque_.jpg” ]इर्शादुल हक, एडिटर, नौकरशाहीडॉटकॉम[/author]
वित्त मंत्री ने 27 फरवरी को बजट पेश किया. और घोषणा की कि इस वर्ष के बजट में 16 हजार करोड़ रुपये ज्यादा की व्यवस्था की गयी है. आंकड़ें बताते हैं कि पिछले 13 साल में बिहार के बजट के आकार में साढ़े छह गुना का इजाफा किया गया है. इतना ही नहीं राजस्व संग्रह में राज्य, इन वर्षों में 9 गुना ज्यादा छलांग लगा चुका है. सच मुच यह एक बड़ी उपलब्धि है. पर जरा ठहरिये. बजट को गौर से पढिये. और पढ़ते हुए अल्पसंख्यक कल्याण वाले कॉलम में पहुंचिए. अल्पसंख्यक कल्याण विभाग एक मात्र ऐसा प्रमुख विभाग है जिसके बजट एलोकेशन में कमी की गयी है. मैं इसे मात्र अल्पसंख्यक कल्याण विभाग इस लिए कह रहा हूं क्योंकि सामुदाय आधारित यह मात्र ऐसा विभाग है जिसके बजट में कटौती हुई है. पिछले 13 सालों के बजट का अवलोकन कीजिए. समाज कल्याण, अनुसूचित जाति/जनजाति कल्याण और अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के बजट में पिछले 13 वर्षों में क्रमिक रूप से इजाफा होता रहा है. यही स्थिति अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के साथ भी रही है.
बजट में 16 हजार करोड़ का इजाफा पर…
पर 13 वर्षों में यह पहला अवसर है जब राज्य सरकार ने अल्पसंख्यक कल्याण के बजट एलोकेशन में कमी कर दी. पिछले वित्त वर्ष में जहां इस विभाग को 595 करोड़ दिये गये थे. लेकिन इस वर्ष इसे घटा कर 435 करोड़ कर दिया गाया. यानी 160 करोड़ रुपये की कमी. प्रतिशत के हिसाब से देखें तो यह कमी 26 प्रतिशत से ज्यादा होती है. चकित करने वाली बात है कि जब सरकार ने 16 हजार करोड़ रुपये अधिक का बजट प्रावधान किया तो अल्पसंख्यक कल्याण के मामले में 26 प्रतिशत की कमी कितनी चिंताजनक है, यह समझा जा सकता है.
ऐसा नहीं है कि पिछले 13 वर्षों में नीतीश सरकार ने अल्पसंख्यक कल्याण पर कम काम किया हो. दर्जनों अल्पसंख्यक छात्रावासों का निर्माण, छात्रों को वजीफा, हुनर और औजार जैसी योजनायें शुरू की गयीं. अल्पसंख्यकों के प्रशिक्षण की खास व्यवस्था भी नीतीश सरकार ने पिछले वर्षों में किया है. विवाद और साम्प्रदायिक तनाव से बचने के लिए संवेदनशील कब्रिस्तानों की घेराबंदी की योजना को भी बीते वर्षों में नीतीश सरकार ने बखूबी लागू किया, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन अचानक सरकार को यह क्या हो गया कि उसने जब दूसरी बार भाजपा के साथ सरकार बनाई और उसके बाद पहला बजट पेश किया तो अल्पसंख्यकों के कल्याण के खर्च में भारी कटौती कर दी?
पिछले जुलाई से, जबसे नीतीश कुमार ने भाजपा गठबंधन के साथ सरकार बनाई है, अल्पसंख्यकों के मामले में उनके रवैये में भारी बदलाव को हर कोई महसूस कर रहा है. एक चुनीहुई सरकार से लोकतांत्रिक इंसाफ की उम्मीद की जाती है, किसी समुदाय की उपेक्षा की नहीं. राज्य सरकार के इस सौतेले रवैये पर राजद के नेता व पूर्व वित्त मंत्री अब्दुल बारी सिद्दीकी ने जोरदार प्रहार किया. उन्होंने नीतीश सरकार पर यहां तक इल्जाम लगा दिया कि इस तरह के बजट से भाजपा की मानसिकता उजागर हो गयी है. पर मेरा सवाल यह है कि भले ही वित्त मंत्री सुशील कुमार मोदी हों, लेकिन सरकार के मुखिया तो नीतीश कुमार हैं. उन्होंने ऐसी नाइंसाफी होने की अनुमति कैसे दे दी. जबकि पिछले वर्षों में उन्हीं की सरकार ने, भाजपा कोटे के वित्त मंत्री सुशील मोदी से बजट पेश करवाते हुए अल्पसंख्यकों के कल्याण कमें कोई पक्षपात होने नहीं दिया.
सौतेलापन तो नहीं?
इतना ही नहीं 17 प्रतिशत की आबादी वाले इस समाज की नुमाइंदगी के लिए जब मंत्री बनाने की बात आयी तो सरकार ने महज एक मंत्री बनाया था. तब भी एनडीए सरकार के रवैये की आलोचना हुई थी.
सवाल यह है कि जब नीतीश सरकार अल्पसंख्यकों के प्रति उपेक्षा का रवैया रखेगी तो क्या उसे उस समुदाय के वोट की उम्मीद करनी चाहिए? 2019 और 2020 बहुत दूर नहीं है. सरकारों को जनता के पास अपने किये का हिसाब देने जाना पड़ता है. नीतीश कुमार के दल को भी जनता की अग्निपरिक्षा से गुजरना होगा. किसी भी राजनीतक दल को यह हमेशा याद रखना चाहिए.