बस दस दिन पहले की ही तो बात है. प्रकाश पर्व की कामयाबी पर अफसरों की पीठ थपथपायी गयी थी. सम्मानित किया गया था. वे इसके हकदार भी थे. पर मक्रसंक्रांति पर 27 लोग इन्हीं अफसरों की लापरवाही से गंगा में विलीन हो गये. अब इन अफसरों के साथ क्या बर्ताव हो?
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम
पूरा राज्य मक्रसंक्रांति के उत्सव में डूबा था. चारों तरफ जश्न ही जश्न. जिला प्रशासन ने गंगा दियारे में पतंगोत्सव का आयोजन, जश्न के लिए ही किया था. अपार भीड़ जमा होने पर पटना और सारण के अफसरान खुश थे. वे सोच रहे थे कि उनकी मेहनत रंग लायी. पर इंतजाम? इंतजाम के नाम पर कुछ लठैत पुलिस खड़े थे. जो लगातार बढ़ती जा रही भीड़ पर लाठियां बरसा कर नियंत्रित कर रहे थे. सारा दिन अफरा-तफरी का आलम था. शाम हुई तो लोगों की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. ढ़लते सूरज और बढ़ती ठंड के कारण वे ज्लद घर वापस आना चाह रहे थे. पर इसके लिए जिला प्रशासन की तैयारी क्या थी. भीड़ के अनुपात में कुछ बी नहीं. नतीजा यह हुआ कि देसी मोटरबोट पर क्षमता से अधिक लोग सवार हो गये. प्रशासन के कारिंदे वहीं खड़े थे. जिन्होंने इसकी परवाह नहीं की कितने लोगों को नाव पर बैठने दिया जाये. 15-10 क्षमता वाले नाव पर 70 लोग सवार हो गये. बोट आगे बढ़ा. वजन के दबाव को मोटर सह नहीं पाया. बंद हो गया. भारी वजन के चलते किश्ती पानी में समाने लगी. बस चार से पांच मिनट में मोटर बोट जलम्गन हो गया. जिंदा और हंसते-मुस्कुरते चेहरे लाशों में बदलते चले गये.
हो सकता है कि जांच के नतीजे कुछ और कहानी बयां करे. लेकिन यह वही प्रशासन है जिसने हाल ही में प्रकाश पर्व में लाखों-लाख श्रद्धालुओं के लिए ऐसी तैयारी की थी जिसकी मिसाल खोजे नहीं मिलती. पर यह वही प्रशासन है जिसने पतंगोत्सव का आयोजन तो किया पर जिम्मेदार अफसरान लापरवाह बने रहे. अगर सरकार अफसरों और जिम्मेदारों के अच्छे काम पर समामनित करती है तो क्या अगर उन्हीं अफसरान की लापरवाही से लोगों की कीमती जान चली जाये तो उन्हें सजा नहीं मिलनी चाहिए?
इसी क्रम में, इसी पटना में 2012, 2014 को याद कीजिए. तब छठ घाट पर अर्घ्य देने के बाद दो दर्जन लोग गंगा में समा गये. फिर दो साल बाद इसी पटना के गांधी मैदान में दशहरा पर रावण दहन के दौरान तीन दर्जन लोग कुचल कर जान गवां बैठे. और अब फिर दो साल बाद 2017 के चौदह जनवरी यानी मक्र संक्रांति पर दो दर्जन से ज्यादह लोग गंगा में विलीन हो गये. पीछे मुड़के पता कीजिए कि इन घटनाओं की जिम्मेदारी कैसे तय की गयी. सच मानिये कि उन दोनों घटनाओं को महज घटना मान लिया गया. किसी की जिम्मेदारी तय नहीं हुई. फिर आगे कैसे उम्मीद की जाये कि अब जिम्मेदारी तय होगी, अफसरों का हिसाब लिया जायेगा. मौजूदा घटना को गैर से देखिए तो हादसे से ले कर कई घंटों तक प्रशासन की ला परवाही दिखती है. नाव डूबने के एक घंटा तककोई बचाव कार्य नहीं हुआ . ये तो घाट पर मौजूद नाविकों का एहसान मानिये जिन्होंने बंसी में फंसा कर लाशों को खोजना शुरू किया. कुछ मलाहों ने जान की बाजी लगा कर उतने लोगों को बचाने में सफल रहे, जितने को बचा सकते थे.