पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू द्वारा बिहार का मजाक उड़ाने पर मीडिया के एक हिस्से ने गिद्ध की तरह झपट्टा मारा और फिर कुछ नेता चिल्होर की तरह टूट पड़े. क्या यही असली बिहारियत और बिहारी अस्मिता की पहचान है?
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम
अगर काटजू ने यह कह दिया कि पाकिस्तान यदि कश्मीर लेना चाहता है तो एक शर्त पर कि उसे साथ-साथ बिहार भी लेना पड़ेगा. जरा गौर से और शांत मन से सोचिए कि इस मुद्दे पर किसने बिहार की किरकिरी की. क्या बिहार कोई कुरकुरे का पैकेट है जिसे पाकिस्तान के हाथ में थमाया जा सकता है?
फेसबुक पर काटजू कई बार हंसी ठहाके करते रहते हैं. वह अनेक धर्मावलम्बियों में आयी खामियों, पंजाबियों और अन्य समाजों को अपने व्यंग्य का निशाना बनाते हैं. व्यंग्य में कई बार तीखापन भी होता है. लेकिन काटजू द्वारा बिहार को कश्मीर के साथ देने के व्यंग्य पर कुछ लोगों की बिहारियत जाग गयी. कुछ लोगों की पत्रकारीय भावना आवेश में आ गयी और फिर रहा सहा कसर हमारे नेताओं ने पूरा कर दिया. जद यू के नेता नीरीज कुमार ने तो काटजू के खिलाफ एफआईर तक दर्ज करा दी. अपने राज्य, अपने समाज अपने देश से से लगाव और भावनायें दिखाना तो ठीक है लेकिन सवाल यह भी है कि क्या हम बिहारी इतने असहनशील हैं कि एक व्यंग्य पर आग का गोला हो जायें?
याद रखिये हम हैं सरताज
याद रखिये कि मजाक उसी का उड़ाया जाता है जो आसानी से चिढ़ जाता है. जो नहीं चिढ़ता उसका मजाक उड़ाने वाला खुद ही मजाक बन जाता है. काटजू के व्यंग्य के बाद हम बिहारियों ने अपनी वह खामी तो उजागर कर ही दी कि हम इस मुद्दे पर असहनशील हो गये.
क्या इस बात में शक है कि देश की ब्यूरोक्रेसी में हम सरताज हैं. देश के बेहतरीन इंजीनियर बिहार से निकल कर अमेरिका और यूरोप तक फैल चुके हैं. देश की तमाम कठिन प्रतियोगी परीक्षाओं में बिहारियों का डंका बजता है. देश की हर नामी-गिरामी युनिवर्सिटियों में बिहारी छात्रों का वर्चस्व है. इतना ही नहीं राष्ट्रीय मीडिया में बिहारियों की प्रतिभा का जादू छाया है. राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों की नयी बयार समय-समय पर बिहार से फूटती है. देश के हर राज्य, हर शहर में बिहारी मेहनतकश अपनी उद्यमिता, अपनी योग्यता और अपनी मेहनत से अपनी पहचान बनाने में लगे हैं.
वर्तनाम से निकल कर अगर इतिहास में जायें तो सूफी-संतो के तमाम आंदोलन, महाबीर, बुद्ध की तमाम साधना बिहार की सरजमीन से पुष्पित हुई. सन चौहत्तर का आंदोलन जिसने दिल्ली के तख्त से कांग्रेस को बेदखल किया- बिहार ही उसकी भूमि रही. यहां तक की गांधी को राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाले चम्पारण सत्याग्रह की स्थली बिहार है. हम इतने संघर्षों और इतने जद्दोहद वाले मेहनतकश राज्य हैं तो क्या काटजू की बात को इतनी असहनशीलता से ले कर और उस मामले को बेजा तूल देकर हमने अच्छा किया?
हम बिहार के बाहर बिहारियों के साथ होने वाली नाइंसाफियों के लिए तो इतना नहीं चिल्लाते. ठाकरे बंधुओं द्वारा बिहारियों को मारने-पीटने पर तो हम इतना नहीं गरजते. उत्तर पूर्व के राज्यों में बिहारी छात्रों की पिटाई और हत्या पर हमारी बिहारियत क्यों नहीं जागती ?
हमारी भलमनसाहत
दर असल कई बार हमारी भलमनसाहत और हमारी ईमानदारी ही हमारे लिए नुकसानदेह साबित होती है. बिहार में हर छोटी बड़ी घटना को राष्ट्रीय खबर बनाने में हम पत्रकार ही लग जाते हैं. यह हमारी पत्रकारीय ईमानदारी है. लेकिन दूसरे प्रदेशों में समान किस्म की हत्या, समान तरह का घोटाला राष्ट्रीय खबर नहीं बनता. इंटर शिक्षा घोटाला जब बिहार में हुआ तो ऐसा ही घोटाला हरियाणा में उजागर हुआ पर को हो हल्ला हुआ क्या? घोटालों के इतिहास में बिहार का कोई घोटाला, मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाला से जघन्य है क्या? लेकिन इस घोटाले की इतनी चर्चा बिहारी पत्रकारों ने क्यों नहीं की? क्या ऐसा नहीं है कि हम बिहारी नाकारात्मक मुद्दों की तरफ लपकने के आदी है. मार्कंडेय काटजू मामले में हमने यही साबित किया है.
[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2016/06/irshadul.haque_.jpg” ]इर्शादुल हक ने सिटी युनिवर्सिटी लंदन और बर्मिंघम युनिवर्सिटी इंग्लैंड से शिक्षा प्राप्त की.भारतीय जन संचार संस्थान से पत्रकारिता की पढ़ाई की.फोर्ड फाउंडेशन के अंतरराष्ट्रीय फेलो रहे.बीबीसी के लिए लंदन और बिहार से सेवायें देने के अलावा तहलका समेत अनेक मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे.[/author]