हर समुदाय में नौजवान बहुत अहमियत होती है। अपने वक्त का यह तबका ही उस समुदाय के मुस्तकबिल की अलामत माना जाता है। इसलिए यह बात बहुत अहम हो जाती है कि हमारी नई पीढ़ी सकारात्मक सोच का हिमायती है या नकारात्मक सोच का।
नई नस्ल को अगर वक्त के रहनुमा और उनके बुजुर्गों की तरफ से सकारात्मक सोच मिलती है तो वह तरक्की, मेहनत और हौसलामंदी के साथ आगे बढ़ने का रास्ता अपनाती है। कुरआन करीम इंसानों के साथ अच्छा सुलूक करने के लिए हुकुम देता है. उसका दायरा कितना विशाल है वह इस आयत से समझा जा सकता है जो सुरअ मुमताहिना की सातवीं और आठवीं आयत में और बाईसवें पारे में है। वह यह है कि “हो सकता है कि अल्लाह तुम्हारे दरमियान, और जिन से तुम्हारी दुश्मनी है उनके दरमियान मोहब्बत और दोस्ती पैदा कर दे”।
इसके बाद वाली आयत में है कि “अल्लाह ताला उन लोगों से गैर मुसलमान जिनसे दीन के मामले में तुम्हारी जंग नहीं हुई और उन्होंने तुम्हें घर से नहीं निकाला, उनके साथ अल्लाह तुम को इस बात से मना नहीं करता कि तुम उनके साथ नेकी करो और इंसाफ करो. अल्लाह इंसाफ करने वालों को पसंद करता है.”
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एक आयत में यहां तक कहा गया है कि दीन के मामले में तुम किसी भी मुसलमान की मदद कर सकते हो मगर उस कौम के खिलाफ मदद नहीं कर सकते जिनके और तुम्हारे दरमियान यह दौर मिसाक है हम इस बात को और इस तरह बाजे कर सकते हैं किसी मुल्क के शहरी होने का मतलब सबसे पहले यह होता है कि उस मुल्क के दस्तूर को वह तस्लीम करता है और जाहिर है कि दुस्तूर से बड़ा कोई अहद और मिसआक नहीं होता इसलिए यह कुरान की जबरदस्त रहनुमाई है.
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हमारे मुस्लिम नौजवानों के लिए कि हमें तमाम मजहब वाले के साथ बराबरी के लेवल पर अपने दस्तूर से बंधे हुए हैं इसलिए हमारे वतन के खिलाफ कोई मुस्लिम, मुल्क में नुकसान पहुंचाने की कोशिश करे तो कुरान पर ईमान का तकाजा यह होगा कि कोई भी मुसलमान उसकी हिमायत व हमदर्दी नहीं कर सकता।
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अब हमें गौर करना चाहिए कि हमारे बड़ों की तरफ से नई नस्ल के दिमाग में कुरान की रहबरी उठाई जाए तो उनके अंदर कितना ज्यादा आत्मविश्वास पैदा होगा कि वह दूसरी जिंदगी गुजारने के साथ-साथ इस्लामी तालीम पर भी अमल कर रहे हैं। यह बात जान कर हमारे नौजवानों को दोहरी खुशी देगी और अपनी तरक्की और समाज को मजबूत करने में वह दोहरे जोश के साथ आगे बढ़ेगा। पैगम्बर मोहम्मद साहब की पूरी जिंदगी भी इसी की मिसाल है।
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