बताया जा रहा है कि नरेंद्र मोदी को यह समझ आ गयी है कि राजनीतिक रूप से इग्नोर्ड पसमांदा मुसलमानों को भाजपा से जोड़ना तुरूप का पत्ता साबित हो सकता है.इसके लिए मोदी ने एक गेमप्लान तैयार किया है.
इर्शादुल हक, सम्पादक नौकरशाही डॉट इन
साबिर अली को बे आबरू करके भाजपा से निकाले जाने के बाद अब पार्टी को यह समझ आ गया है कि पसमांदा मुसलमानों के बिना भाजपा कोई जंग नहीं जीत सकती.
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अब खुद नरेंद्र मोदी के स्तर पर इस बात पर गंभीरता से गौर किया जाने लगा है कि अभी तक भाजपा में जो भी मुस्लिम चेहरे हैं वे अगड़ी जातियों से तअल्लुक रखते हैं. इनमें सिंकंदर बख्त( अटल-अवाणी के सहयोगी) से ले कर मुख्तार नकवी तक और शाहनवाज हुसैन से लेकर नजमा हेब्तुल्लाह तक, सभी अगड़ी जाति के मुसलमान रहे हैं. पार्टी यह भी समझ चुकी है कि इन मुस्लिम चेहरों की जमीन पर कोई पकड़ न होने की वजह से पार्टी अब तक मुसलमानों से कोसों दूर रही है.
नजमा हेब्तुल्ला पिछले दिनों जब बिहार आयी थीं तो उन्होंने अनेक मुस्लिम नेताओं से मुलाकात की थी. लेकिन उन्हें इन शिकायतों से भी दो चार होना पड़ा था कि भाजपा में पसमांदा( पिछड़े) मुसलमानों को न सिर्फ कोई तवज्जो, नहीं दिया जाता है बल्कि साबिर अली को सिर्फ इसलिए पार्टी में शामिल किये जाने के 48 घंटे बाद बेआबरू करके निकाल दिया गया कि वह पसमांदा मुसलमान थे. साबिर को अपमानित करने वाले कोई हिंदू भाजपाई न हो कर खुद मुख्तार अब्बास नकवी थे जो अगड़ी जाति के मुसलमान हैं.
85 प्रतिशत हैं पसमांदा
लेकिन अब जो खबरें आ रही हैं उसमें बताया जा रहा है कि चुनाव बाद साबिर अली को फिर से भाजपा में जगह दी जा सकती है.
अमर उजाला की एक खबर में यहां तक बताया गया है कि पिछडे़ मुसलमानों को पार्टी से जोड़ने के लिए आम चुनाव के बाद बड़े स्तर पर कवायद शुरू करने की योजना खुद पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की है. अखबार ने लिखा है कि पुराने मुस्लिम चेहरों के इतर नए चेहरों पर दांव लगा कर पार्टी की योजना इस बिरादरी के पिछड़े तबके यानी पसमांदा मुसलमानों को साथ लाने के लिए लंबी कसरत करने की है.
ध्यान देने की बात है कि मुसलमानों की कुल आबादी का 85 प्रतिशत हिस्सा पसमांदा मुसलमानों का है. लेकिन तमाम राजनीतिक दलों में अगड़ी जाति( अशराफिया) मुसलमानों का ही कब्जा है.
शक्ति का एहसास
पूरे भारत में किसी भी पार्टी में पसमांदा मुसलमानों का प्रतिनिधित्व ऊंट के मुंह में जीरा की तरह ही है. यह स्थिति तीन दशक पहले तक हिंदू पिछड़ों के साथ भी थी. लेकिन 1980 के दशक से हिंदू पिछड़ों को अपनी राजनीतिक शक्ति का एहसास हुआ जिसके नतीजे में हिंदी भाषी क्षेत्र में सामाजिक न्याय के आंदोलन ने जबर्दस्त जोर पकड़ा और पिछड़ी जातियों का राजनीति में वर्चस्व कायम हो सका. लेकिन अब यही सामाजिक न्याय का आंदोलन मुसलमानों में जोर पकड़ा है. 2005 में पसमांदा मुसलमानों ने बिहार में नीतीश कुमार को यह बात समझाई और नतीजे में उन्होंने पसमांदा मुस्लिम आंदोलन की अहमियत को समझा और बदले में 2010 आते- आते पसमांदा मुसलमानों ने विधानसभा चुनाव में नीतीश को खुल कर समर्थन किया. परिणाम यह हुआ कि नीतीश को 2010 के विधानसभा चुनाव में उम्मीदों से ज्यादा सफलता मिली.
अब नरेंद्र मोदी ने पसमांदा मुसलमानों की राजनीतिक शक्ति को पहचानी है. यह मोदी के लिए मुसलमानों के करीब जाने का एक गोल्डेन अवसर है. जाहिर है मोदी की थिंक टैंक ने इस बात को समझ लिया है. पर यहां एक गंभीर चुनौती है. इसकी एक झलक साबिर अली के एपिसोड में देखने को मिल भी गया है. जब जद यू के लोकसभा सांसद साबिर अली भाजपा में शामिल हुए तो उनपर दाऊद इब्रहिम के साथ सांठ-गांठ के आरोप की आड़ में हमला करने वाले अगड़ी जाति के नेता मुख्तार अब्बास नकवी ही थे. दर असल नकवी एक चतुर नेता हैं और उन्हें यह एहसास हो चुका था कि पसमांदा मुसलमानों को अगर भाजपा में शामिल किया गया तो अगड़ी जाति के भाजपा मुस्लिम नेतृत्व पर खतरा आ सकता है.
हालांकि अब साबिर का एपिसोड नेपथ्य में चला गया है लेकिन अगर भाजपा ने फिर से पसमांदा मुसलमानों को करीब लाने की कोशिश शुरू की तो उसे मुख्तार अब्बास नकवी जैसे नेताओं को जरूरत से ज्यादा तरजीह देने से बाज आना ही पड़ेगा. इस मामले में दूसरी गंभीर चुनौती खुद आरएसएस का रवैया भी हो सकता है जो वैचारिक रूप से पिछड़ा विरोधी रहा है. साबिर मामले में मुख्तार की हां में हां सबसे पहले आरएसएस ने ही किया था. अब यह बात नरेंद्र मोदी की राजनीतिक दृष्टि पर निर्भर है कि वह इन चुनौतियों से कैसे निपटते हैं.
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