2019 का लोकसभा चुनाव बेगूसराय में भूमिहार की निष्ठा की अग्नि परीक्षा साबित होगी। यह चुनाव यह साबित करेगा कि भूमिहार लालू यादव के गठबंधन के साथ हैं या नीतीश के गठबंधन के साथ। भाजपा के सांसद भोला सिंह उम्र के आधार पर खारिज किये जा सकते हैं और उनकी जगह पार्टी किसी नये चेहरे का चयन करेगी। उधर जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार (भूमिहार) सीपीआई के उम्मीदवार हो सकते हैं। मीडिया में इसी बात की चर्चा है। सीपीआई के सूत्र भी इसकी पुष्टि करते हैं। लेकिन महागठबंधन के सभी घटक उनके नाम पर सहमत होंगे, यह अभी तय नहीं हैं। महागठबंधन के ही एक विधायक कहते हैं कि कन्हैया सिर्फ मीडिया के उम्मीदवार हैं। जनता में न उनकी पहचान है और न आधार है। वैसे सीपीआई के भूमिहार एक बार ही बेगूसराय से जीत पाये हैं। सीपीआई के भूमिहार बेगूसराय से लड़ते रहे हैं, लेकिन जीत से काफी दूर रहते हैं।
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वीरेंद्र यादव के साथ लोकसभा का रणक्षेत्र – 13
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सांसद — भोला सिंह — भाजपा — भूमिहार
विधान सभा क्षेत्र — विधायक — पार्टी — जाति
चेरियाबरियापुर — मंजू वर्मा — जदयू — कुशवाहा
बछवाड़ा — रामदेव राय — कांग्रेस — यादव
तेघड़ा — वीरेंद्र कुमार — राजद — धानुक
मटिहानी — नरेंद्र सिहं — जदयू — भूमिहार
साहेबपुरकमाल — श्रीनारायण यादव — राजद — यादव
बेगूसराय — अमिता भूषण — कांग्रेस — भूमिहार
बखरी — उपेंद्र पासवान — राजद — पासवान
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2014 में वोट का गणित
भोला सिंह — भाजपा — भूमिहार — 428227 (41 प्रतिशत)
तनवीर हसन — राजद — मुसलमान — 369892 (35 प्रतिशत)
राजेंद्र प्रसाद सिंह — सीपीआई — भूमिहार — 192639 (18 प्रतिशत)
सामाजिक बनावट
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बेगूसराय के सामाजिक समीकरणों में भूमिहार भारी पड़ते रहे हैं। इस क्षेत्र में सात विधान सभा क्षेत्र आते हैं और सभी इसी जिले के हैं। इसकी जातीय बसावट भी भूमिहार प्रभुत्व वाला माना जाता है। बेगूसराय, मटिहानी और तेघड़ा विधान सभा क्षेत्र में अन्य क्षेत्रों के अलावा ज्यादा भूमिहार बसते हैं। बछवाड़ा और साहेबपुरकमाल यादव प्रभाव वाले क्षेत्र हैं। बखरी और चेरियाबरियापुर अतिपिछड़ों का प्रभाव वाला माना जाता है। संसदीय क्षेत्र में पांच लाख से ज्यादा भूमिहार वोटर होंगे, जबकि यादव व मुसलमान दो-दो लाख होंगे। कांग्रेस इस सीट से लगातार भूमिहार को ही टिकट देती रही है। भाजपा ने भी भूमिहार को ही पसंद किया।
भूमिहार फैक्टर
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दो सांसदों को छोड़कर अब तक सभी भूमिहार सांसद ही बनते रहे हैं। इसकी वजह रही है कि भूमिहार फैक्टर। बेगूसराय, शेखपुरा और लखीसराय जिले भूमिहार प्रभाव वाले जाते हैं। बेगूसराय में परिसीमन के पूर्व और परिसीमन के बाद भी भूमिहारों का प्रभाव रहा है। इसके बगल वाला संसदीय क्षेत्र बलिया भी भूमिहार प्रभुत्व वाला ही था, लेकिन परिसीमन में बलिया विलोपित हो गया। बलिया लोकसभा और विधान सभा दोनों से विलोपित हो गया। बलिया से भी एकाध को छोड़कर भूमिहार ही जीतते रहे हैं। बेगूसराय से दो बार ही गैरभूमिहार जीते रहे हैं। 1999 में राजद के राजवंशी महतो और 2009 में जदयू के मोनाजिर हसन निर्वाचित हुए थे। इसके लिए सांसदों की पार्टी बदलती रही है, लेकिन जाति नहीं बदली।
कौन-कौन हैं दावेदार
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भाजपा सांसद भोला सिंह का उत्तराधिकारी कौन होगा, अभी तय नहीं है। यह सीट भाजपा के कोटे में जाएगी या जदयू के कोटे में, यह भी तय नहीं है। लेकिन इतना है कि एनडीए का उम्मीदवार भूमिहार ही होगा। भाजपा की ओर से सबसे बड़े दावेदार एमएलसी रजनीश कुमार को माना जा रहा है। वे लगातार क्षेत्र में सक्रिय हैं। वे स्थानीय आयोजनों में भी रुचि ले रहे हैं। हालांकि बेगूसराय जिले में एक भी विधायक भाजपा के नहीं हैं। बदले समीकरण में भाजपा यह सीट जदयू के लिए नहीं छोड़ेगी। इसका सीधा रिश्ता मुंगेर से जुड़ा हुआ है। मुंगेर से जदयू के टिकट पर मंत्री ललन सिंह चुनाव लड़ना चाहते हैं। वैसे भी भाजपा भूमिहार प्रभाव वाली सीट बेगूसराय जदयू को नहीं देना चाहेगी। महागठबंधन की ओर यह सीट सीपीआई के खाते में जाएगी, यही आम धारणा है। लेकिन अंतिम यही नहीं है। 2014 के चुनाव में सीपीआई के राजेंद्र प्रसाद सिंह को 192639 वोट आये थे, जबकि उन्हें नीतीश कुमार का समर्थन प्राप्त था। इसलिए सीपीआई और भूमिहार होने के कारण कन्हैया कुमार का टिकट पक्का नहीं माना जा सकता है। महागठबंधन में भी अंतिम फैसला अंतिम समय में होगा। वैसे में राजद व कांग्रेस भी अपनी दावेदारी जता रही है। कांग्रेस की विधायक अमिता भूषण कहती हैं कि हम पार्टी के निर्णय के साथ हैं। पार्टी का जो निर्देश होगा, उसका पालन करेंगे। उनकी मां चंद्रभानू देवी भी बलिया से सांसद रह चुकी हैं। जबकि बछवाड़ा विधायक रामदेव राय कहते हैं कि उन्हें अब दिल्ली जाने में रुचि नहीं है और गांवों की ही सेवा करना चाहते हैं। तेघड़ा से राजद विधायक वीरेंद्र कुमार कहते हैं कि राजद के रामवदन राय ने चुनाव में गंभीर चुनौती दी थी। यानी दोनों खेमों में टिकट के दावेदार भी हैं, लेकिन मौन की भी अपनी राजनीति है।