जीतन राम मांझी कांशी राम के बाद की पीढ़ी के एक सश्कत नेता बन कर उभर सकते थे. लेकिन वह न सिर्फ चूक गये बल्कि खुद को ही मिटा देने की हद तक चूक गये.

न खुदा ही मिला, न विसाल ए सनम
न खुदा ही मिला, न विसाल ए सनम

नतीजा यह हुआ कि मांझी की पूरी टीम का सूपड़ा साफ हो गया. खुद मांझी भी एक जगह से बुरी तरह हार गये.

इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट इऩ

मुख्यमंत्र रहते मांझी ने बगावत की थी. उस शक्ति के खिलाफ जिसने उन्हें सत्ता के सिंहासन पर बिठाया था. राजनीति में ऐसी बगावत को कुछ लोग धोखे के रूप में देखते हैं. पर अगर आप राजनीति की पेचीदा पगडंडियों के रहस्यों को देखेंगे तो लगेगा कि ऐसी बगावत राजनीति में आम है. एक नहीं, दर्जनों ऐसे राजनेता हैं जिन्होंने, उन्हीं कंधों को धक्के मार कर गिराया है जिन्हें सीढ़ी बना कर ऊपर चढ़े थे. मांझी ने भी वही किया था.

पर मांझी को बदगुमानी यह थी कि उन्हें यह लगने लगा था कि वह मास लीडर हो चुके हैं. उनकी इस बदगुमानी में काफी हद तक सच्चाई भी थी. उनकी आवाज में ऐसी ताकत आ गयी थी कि एक बड़ा तबका उन्हें अपना हीरो, अपना नायक मानने लगा था. लेकिन उनकी इस बदगुमानी ने उनसे एक पर एक गलतियां करवा दी.

भीख में कोई अगर दे तो उजाला मत ले

आने वाली पीढियां किताबों में पढ़ेंगी. बिहार में एक मुख्यमंत्री हुआ करते थे. नाम था जीतन राम मांझी. लोकतांत्रिक व्यवस्था में उन्हें सिंहासन राजतंत्रीय तरीके से मिला था. एक लोकतांत्रिक राजा ने उन्हें स्नेह या तैश में आ कर सिंहासन सौंप दिया था. पर मांझी को यह गुमान हुआ कि वह सचमुच के राजा हो गये हैं. उन्हें लगने लगा था कि वह बहुत शक्तिशाली और जनप्रिय हो चुके हैं. एक दिन आया कि उन्होंने अपनी जनप्रियता की अग्निपरीक्षा ली. अग्निपरीक्षा एक आंधी बन कर आयी.उनके सारे सिपहसालार तूफान की भेंट चढ़ गये. उस समुंद्री तूफान में मांझी की भी एक नाव डूब गयी. उस नाव पर उनका एक मुकुट भी था.वह भी स्वाहा हो गया.

किराये या भीख में मिले पंख की उड़ान ऐसी ही होती है. बस बच्चे याद करेंगे. और सबक लेंगे. और यह सबक कुछ ऐसा होगा-

भीख में कोई अगर दे तो उजाला मत ले
पेड़ खुद बन के दिखा, गैर का साया मत ले

 

उन्होंने नीतीश कुमार को चुनौती दी. लेकिन उस चुनौती से लड़ने के लिए उन्होंने उस शक्ति का सहारा लिया जिसने खुद उन्हें अपने हाथों का खिलौना बनाना चाहता था. नीतीश कुमार ने मांझी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया. उनकी सरकार गिर गयी.

 

समय की नब्ज नहीं भांप सके

नीतीश कुमार,ने उन्हें सत्ता सौंपी थी, उनके खिलाफ बगावत का बिगुल फूंकने को कई लोग सही नहीं ठहराते. लेकिन राजनीति में सत्ता की चाहत इस तरह के फैसले लेने को प्रेरित करती ही है. पर सवाल तब यह था कि कुर्सी से हाथ धो लेने के बाद उन्हें क्या करना चाहिये. चीजें बड़ी तेजी से बदल रही थीं. सत्ता खोने के बाद भी वह बिहार की राजनीति के केंद्र के रूप में सामने आ चुके थे. लेकिन उन्होंने राजनीति के इस फलक को समझने की कोशिश ही नहीं कि. जबकि उन्हें कई राजनीतिक पंडितों ने उनके अंदर की संभावनाओं को समझाने की कोशिश की थी. लेकिन वह ताड़ से गिरे तो खुजूर पर अटकने चले गये. नीतीश से जुदा राह अपनाने के बाद मांझी की लोकप्रियता और बढ़ गयी थी. दलितों के बौद्धिक वर्ग ने उनमें एक नायक की छवि देखनी शुरू कर दी थी. उन्हें लगने लगा था कि मांझी ने अगर नीतीश से दुश्मनी मोल ली है तो इसका मतलब यह है कि उन्हें कुर्सी से मोह नहीं. और कुर्सी से मोह नहीं रखने वाले के बारे में समाज यह महसूस करता है कि वह अपने समाज के लिए कुछ बी त्याग कर सकता है. सो दलितो के बड़े वर्ग ने उनमें मसीहा की छवि भी देख ली. लेकिन उसके बाद जीतन राम मांझी ने जो कदम उठाये उससे अचानक दलितों और हाशिये के लोगों को महसूस हो गया कि वह गलत रहा चल पड़े हैं.

जो गलती की

मांझी ने कुर्सी को जोखिम में डालने का जो साहस किया वह साहस बैलून की तरह फूट गया. उनका यह साहस तब सफल होता जब वह भारतीय जनता पार्टी की गोद में बैठने के बजाये खुद अपने बूते पर मैदान में कूद जाते. बिहार से ले कर दिल्ली तक अनेक दलित संगठनों ने उनके इस फैसले पर भौंचक रह गये. दर असल मांझी ने कुर्सी से हटने को दलित समाज की स्मिता से जोड़ने के बजाये, अपनी स्मिता से जोड़ने की हिमालयायी भूल कर दी.

तब बड़ी आबादी को यह लग गया कि मांझी की राजनीति, नीतीश दुश्मनी की धूरी पर टिकी है. अगर मांझी अपना रुख भाजपा की तरफ करने के बजाये वोटरों की तरफ करते तो उनकी वह दुर्गति कत्तई नहीं होती जो आज दिख रही है. आज मांझी और उनकी पार्टी में मांझी के अलावा कोई नहीं जो विधानसभा में नुमाइंदगी करे.

मांझी अपनी लोकप्रियता और अपने अंदर संभावित पोटेनशियल को नहीं पचा सके. बेशक वह फिर से मुख्यमंत्री बनते या नहीं यह विवेचना का पहलू है लेकिन यह तय था कि वह दलित राजनीति के नये नायक की तरह उभर कर सामने आते. मांझी चूक गये.  और ऐसा चूके कि अब वह इस आरोप से खुद को शायद ही बरी कर पायें कि उन्होंने नीतीश कुमार के बड़ा छल किया. हालांकि राजनीतिक नेतृत्व के स्तर पर ऐसे छल किये जाते रहे हैं. लेकिन यही छल जब जनता से किया जाता है तो जनता नायक को भी नहीं बख्शती. इस चुनाव में यही तो हुआ.

 

 

 

By Editor


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