अपने बेबाक फ़ैसलों से सरकारों को असहज करने का माद्दा रखने वाले जस्टिस वर्मा नहीं रहे.वर्मा ने अपनी अंतिम सांस तब ली जब महिला उत्पीड़न पर पेश किये गये उनके कानूनी मसौदे पर देश में चर्चा जारी है.
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहते समय न्यायिक सक्रियता को नई धार देने और दिल्ली के सामूहिक दुष्कर्म कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानूनों में बदलाव की आधारशिला रखी थी.
1997-98 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस वर्मा ने एक महीने से भी कम वक्त में जस्टिस वर्मा कमेटी की 600 पन्नों की रिपोर्ट सरकार को सौंप दी.
इस रिपोर्ट को देखते ही केंद्र सरकार असहज हो गयी और इसे पूरी तरह लागू करने से कतरा गयी.
वर्मा के बेबाक फैसले
1992 में रामास्वामी केस मामले में एक बेबाक फैसला सुनाते हुए जस्टिस वर्मा ने लिखा अगर राष्ट्रपति भी किसी जज को हटा देते हैं तो इस फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है.
1994 में एक महत्वपर्ण फैसला सुनाते हुए एस आर बोम्मई केस में संविधान की धारा 356 (1) के दुरुपयोग पर रोक लगाने की बात कही. इस धारा के अंतर्गत केंद्र सरकार राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करती है. उनके फैसले के अनुसार राष्ट्रपति संसद की मुहर के बाद ही किसी राज्य की विधान सभा को भंग कर सकता है.
1994 में वर्मा ने एक और हलचल मचा देने वाला फैसला सुनाया था. उन्होंने केंद्र सरकार को लताड़ते हुए जमात ए इस्लामी केस के सिलसिले में कहा था कि किस आधार पर संगठन पर पाबंदी लगाई गई. अगर इसके ठोस सबूत नहीं तो फिर संगठन को बैन करना गलत है.
इसी तरह जस्टिस वर्मा ने स्वत: संज्ञान लेने की परम्परा को मजबूत करते हुए 1993 में नीलबती बेहरा केस में पुलिस हिरासत में बेटे की मौत के बाद नीलबती की लिखी चिट्ठी को ही रिट याचिका में तब्दील कर दिया और सरकार को मुआवजे का आदेश दिया.