महान मजदूर नेता, जंगे आजादी के कद्दावर नेता और 1937 में बिहार विधान सभा के सदस्य रहे प्रोफेसर अब्दुल बारी की शहादत को क्या हम भूलते जा रहे हैं?
सैयद उमर अशरफ
8 मार्च को पटना मे था , उस समय पुरा पटना एक ख़ास पोस्टर से पटा था जिसमे ‘अमर शहीद जुब्बा साहनी’ का शहादत दिवस 11 मार्च को मनाने के लिए लोगोँ को आमंत्रित किया गया था , ठीक ऐसा ही पोस्टर ‘अमर शहीद जगदेव प्रासाद’ के जन्मदिन और शहादत दिवस पर पुरे पटना मेँ देखा जा सकता है और ये पोस्टर किसी ख़ास संगठन द्वारा नही लगाया जाता है ये पोस्टर हर सियासी पार्टी लगाती है चाहे वो भाजपा हो या लोजपा या वो राजद हो या फिर जदयु या चाहे रालोसपा.
[box type=”shadow” ]शहादत दिवस, 28 मार्च[/box]
लेकिन इन दोनों नेताओं के अलावा कद्दावर मजदूर नेता और जंगे आजादी के महान रहनुमा शहीद प्रोफेसर अब्दुल बारी का शहादत दिवस 28 मार्च को है. ऐसे में ध्यान गया कि क्या उनका शहादत दिवस भी इसी सम्मान के साथ मनाया जायेगा. क्या इसी तरह पोस्टर लगाया जाएगा ? नहीं और बिलकुल नही! ऐसा क्योँ होगा ? और इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? ऐसे कई सवाल मन में आने लगे.
बदलते दौर में हमारे शहीदों को याद करने का चलन जातीय या धार्मिक चश्मे से देख कर किया जाने लगा. और आप इस तरह देखेंगे तो पता चलेगा कि कई शहीदों को उनकी जाति या फिर उनके मजहब तक समेट कर छोड़ दिया गया है. लेकिन हैरत तो तब होती है कि मुसलमानों ने भी अब्दुल बारी को भुला दिया.
अब तो सच्चाई यह है कि हमने अपने शहीदों को भी भूलना शुरू कर दिया है. ऐसे में ख़ुद मुसलमानों की नयी पीढ़ी को भी नही पता कि ‘अबदुल बारी’ कौन थे.
जिन्हें हमने याद किया
वैसे अपने बुज़रगोँ के सम्मान के लिए लड़ने वाले भी हैँ जो अकेले सिस्टम से मुतालबा कर रहे हैँ . इसमे कई जगह इन्हे कामयाबी भी मिली है जैसे शायरे सरफ़रोशी ‘बिस्मिल अज़ीमाबादी’ को उनका हक़ मिला , मुनव्वर हसन कि मेहनत रंग लाई और ‘सैयद शाह मोहम्मद हसन (बिसमिल अज़ीमाबादी)’ को नौवीं कलास की उर्दु किताब है उसमे इज़्ज़त के साथ जगह मिली , पटना मे शहीद पीर अली ख़ान र्पाक भी उस जगह पर बना जहाँ 1 जुलाई 1857 को पीर अली को उनके 30 साथीयोँ के साथ फांसी पे लटका दिया गया था. पर अब्दुल बारी के योगदान पर बहुत काम नहीं हो सका है. नयी पीढ़ी क्या इस दिशा में कुछ करेगी.