नौकरशाही डॉट इन की सलाहकार सम्पादक ममता कश्यप अमेरिका में प्रसव के बाद ‘काम वाली’ की तलाश में निकलीं. एक आया ने कहा कि वह छोटी जाति के यहां काम नहीं कर सकती.
जब मैं बिहार में या यूं कहिए कि भारत में थी तो यह प्रश्न रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हुआ करता था. तब यह प्रश्न उतना परेशान नहीं करता था.जंहा आपसे बात करने से पहले आपकी जाति की जानकारी ले ली जाती है.
सच पूछे तो बात करने की वहां आज भी आपकी योग्यता आपकी जाति से हीं निर्धारित होती है.
अगर किसी ने ज्यादा सभ्यता दिखाई तो आपकी जाति सीधे-सीधे न पूछ कर आपका नाम पूछ कर ज्ञात करने की कोशिश करते ह .खैर यह प्रश्न तब मुझे इतना विचलित नहीं करता था. परन्तु अमेरिका में जब इस प्रशन से सामना हुआ तो ऐसा लगा किसी ने मेरे पैरों के निचे से जमीं खींच ली हो.
वाकया कुछ इस तरह का है.
पिछले साल जब मैं प्रसव के पश्चात घरेलु कामों में सहयोग के लिए किसी को ढूंड रही थी. अमूमन मैंने आस-पास के देसी दुकानों में विज्ञापन चिपका दिया. जवाब में बहुत लोगों ने संपर्क किया. उसी दौरान एक ऐसा भी कॉल आया जिसमे अन्य जानकारियों के आलावा इस प्रश्न से भी सामना हुआ- “आप लोग कौन कास्ट हैं”. मैं थोड़ी देर के लिए सकते में आ गयी. फिर मैंने खुद को नियंत्रित किया और उसके प्रश्न का उत्तर दिए बगैर मैंने पुछा “आपके इस प्रश्न का मतलब क्या है”. जवाब आया कि मैं सबके घरों में काम नहीं कर सकती.
दूसरा प्रश्न मैंने किया, “तो आप ही बताइए आप किन किन घरों में काम कर सकती है”? तब शायद उन्हें मेरा यह सवाल पसंद नहीं आया. उसने कहा मेरा मतलब ऐसा कुछ नहीं था. कुछ लोग मांस- मछली खाते हैं, बीफ़-पोर्क खाते हैं ऐसे घरों में मैं काम नहीं करती. मैंने कहा यह सही है की कुछ लोग सब खाते हैं मगर इसका जाति विषेश से क्या सबंध हैं? उसने कहा छोटी जातियों के लोग ज्यादा खाते हैं.
हालाँकि ऐसा उसका सोचना सही नहीं था परन्तु मुझे ऐसा एहसास हुआ क्योंकि उसे अपने बचाव में कोई सही जवाब नहीं मिलाने से उसने यह तर्क दिया.
मैंने उसे काम पर तो नहीं रखा परन्तु इस प्रश्न ने मेरे विचारों में ज्वार-भाटा जरुर उत्पन्न कर दिया.
अमेरिका में रहने वाले भारतीय विज्ञान एवं तकनीक के मामले में अव्वल नंबर पर आते हैं.साथ हि कुरितियों को ढ़ोने में भी हम पीछे नहीं हैं.
भारतीय भलें ही चाँद पर चलें जाएँ लेकिन अपनी जाति से पीछा छुड़ाना नामुमकिन सा प्रतीत होता है. ऐसा लगता है आपकी सारी उपलब्धियां धरी की धरी रह जाती हैं सिर्फ एक जातिगत योग्यता के आगे. तभी तो कहा गया है कि ‘जाति’ मरने के बाद ही जाती है.