जनता परिवार एका पर तनी गुलेल से कुछ लोगों के माथे पर तनाव है पर लालू-नीतीश को पता है कि वे एक नहीं रहे तो एक साथ पतन के शिकार हो सकते हैं.
इर्शादुल हक, सम्पादक, नौकरशाही डॉट इन
जनता परिवार के विलय या गठबंधन के महत्व को अगर सबसे ज्यादा कोई समझता है तो वे हैं लालू प्रसाद और नीतीश कुमार.लालू-नीतीश यह भी बखूबी समझते हैं कि अगर वे एक नहीं रहे तो एक साथ पतन के शिकार हो सकते हैं.अंधकारमय भविष्य से कौन नहीं सतर्क रहता.सो दोनों सतर्क हैं, इस बात में दो राय नहीं. फिर विलय या गठबंधन पर वावेला क्यों है?
क्यों तनी है गुलेल
दर असल राजनीति की उलझी पगडंडियों से गुजर रहे इन दोनों रहबरों को इल्म है कि शिकार पर निशाना साधने के लिए गुलेल के रबर को टूटने से पहले कितना तानना है. फिलवक्त दोनों अभी इसी मोड में हैं. शह और मात का खेल जारी है. इस खेल में दोनों नेता कभी-कभी अपने वजीरों को सामने खड़ा कर दे रहे हैं तो कभी-कभी मीडिया को स्पेकुलेशन के मसाले भी मुहैया कर रहे हैं. गठबंधन में अलग साथी की तलाश का सोसा भी इसी रणनीति का हिस्सा है. गुलेल की इस तनातनी के दो महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं- मुख्यमंत्री का प्रत्याशी कौन हो और किस दल को कितनी सीटें मिलें. रघुवंश प्रसाद सिंह से लालू का यह कहलवाना कि राजद को 143 सीटों पर दावेदारी बनती है तो जद यू के वशिष्ट नारायण सिंह का यह कहना कि गठबंधन से पहले नेता के नाम की सार्वजनिक घोषणा कर दी जाये, यानी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित कर दिया जाये.
तो ये है निशाना
लालू प्रसाद को यह खूब पता है कि नीतीश मुख्यमंत्री के पद से कम किसी समझौते को स्वीकार नहीं कर सकते और नीतीश कुमार को भी यह ज्ञात है कि लालू हर हाल में[विलय या गठबंदन जो भी हो] संगठन पर पकड़ बनाये बिना नहीं मान सकते. और लगभग यह भी तय सा है कि दोनों अंत-अंत तक मोल-तोल करते हुए साकारात्म समझौते तक पहुंच ही जायेंगे. क्योंकि नीतीश लालू के बिना न तो अभी मुख्यमंत्री हैं और न ही उनके बिना वह चुनाव बाद मुख्यमंत्री बन सकेंगे, उन्हें मालूम है. दूसरी तरफ राजनीतिक रूप से अपना सबकुछ गंवा चुके लालू को अपनी नयी पीढ़ी के लिए, अपने जीते जी सत्ता में मजबूत हिस्सेदारी दिलाने का यह आखिरी मौका है, जो वह नीतीश के बिना नहीं कर सकते. और यह भी सच है कि दीवार पर लिखी इन इबारतों को पढ़ नहीं पाने की भूल न तो लालू करना चाहेंगे और नहीं नीतीश. क्योंकि इन्हीं खतरों को लालू और नीतीश ने 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद पढ़ लिया था और साथ आ लिये थे. जिसके नतीजे असेम्बली के उपचुनाव में शानदार सफलता के रूप में सामने आ चुके हैं.
नीतीश, लालू के बिना न तो अभी मुख्यमंत्री हैं और न ही उनके बिना वह चुनाव बाद मुख्यमंत्री बन सकेंगे. दूसरी तरफ अपना सबकुछ गंवा चुके लालू को अपनी नयी पीढ़ी के लिए, अपने जीते जी सत्ता में मजबूत हिस्सेदारी दिलाने का यह आखिरी मौका है, जो वह नीतीश के बिना नहीं कर सकते.
लोकसभा चुनाव ने लालू और नीतीश को जो सबसे बड़ा सबक दिया है वो यह है कि विकास के तमाम रिकार्डों के बावजूद न तो नीतीश खुद को बचा सकते हैं और न ही, मुस्लिम-यादव वोट बैंक की समृद्द सम्पदा के बावजूद लालू अकेल कुछ कर सकते हैं. इन सबके बावजूद एक आखिरी सूरत इन दोनों नेताओं के बीच यह बन सकती है कि दोनों अपनी अना पर अड़े रहें और खुदके पतन का गवाह बनें. दोनों नेताओं ने पिछले दिनों में वक्त के थपेड़ों से जितना सीखा है, ऐसे में इसकी संभावना कम ही है कि वे अपने पतना की इबारत लिखना चाहेंगे.