दैनिक जागरण के राजकेश्वर सिंह की यह रिपोर्ट बताती है कि सचर समिति की सिफारिशें के बाद नौकरियों में मुसलमानों की भागीदारी बढ़ने लगी थी पर अब फिर घटने लगी है
चुनावी माहौल में राहुल गांधी मुसलमानों के लिए फिक्रमंद दिख रहे हों, लेकिन कांग्रेस की केंद्र सरकार खुद अल्पसंख्यकों की कम गुनहगार नहीं है।
जिस सच्चर समिति की सिफारिशों पर अमल की वाहवाही में कांग्रेस को पिछले लोकसभा चुनाव में 30 सीटों का इजाफा हुआ, अब वह उन्हीं से कहीं न कहीं मुंह फेरने लगी है। नतीजा यह है कि अल्पसंख्यकों से सरकारी नौकरियों के मौके फिर से छिनने लगे हैं।
हालांकि सच्चर की सिफारिशों पर सात साल पहले शुरू हुई अमल के बाद भी अल्पसंख्यकों, खासतौर से मुसलमानों की तालीम और तरक्की में कोई बहुत तब्दीली नहीं आई, लेकिन सरकारी नौकरियों में उनकी भागीदारी जरूर बढ़ने लगी थी।
2006-072008-092010-112012-138वेतनभोगी नौकरियों में मुसलमानों की भागीदारी बहुत ही कम है.रेलवे में महज 4.5 प्रतिशत भागीदारी18बैंक व आरबीआइ में 2.2 प्रतिशत18सुरक्षा एजेंसियों में 3.2 प्रतिशत अल्संख्यक केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में 3.3 फीसद 18नौकरी की शतरें में दूसरे समुदायों से अधिक असुरक्षित, फेरी वालों का राष्ट्रीय औसत 8 व मुसलमानों में 12} से अधिक -समुदायों में सेल्समैन का राष्ट्रीय औसत 10 व मुसलमानों में 16}, आइएएस में सिर्फ तीन, आइपीएस में चार व आइएफएस में 1.8}
2009-10 को छोड़ दें तो दो साल पहले तक केंद्रीय मंत्रलयों, विभागों, सरकारी बैंकों, पुलिस, अर्ध सैनिक बलों, डाक, रेलवे और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की नौकरियों में अल्पसंख्यकों की भागीदारी तेजी से बढ़ी। यह बात अलग है कि इन कोशिशों के बाद भी 2010-11 में केंद्र की सरकारी नौकरियों में सिर्फ दस प्रतिशत से कुछ अधिक अल्पसंख्यकों को ही मौका मिल पाया।
जबकि, बाद के वर्षों में यह औसत घटकर छह से साढ़े सात प्रतिशत तक ही सिमट कर रह गया है। संप्रग सरकार और कांग्रेस के लिए यह स्थिति इसलिए भी असहज करने वाली हो सकती है, क्योंकि सच्चर समिति की रिपोर्ट पर अमल के बाद से ही वे देश के 18 प्रतिशत से अधिक अल्पसंख्यकों, खासतौर से मुसलमानों को कई तरह सब्जबाग दिखाते रहे हैं। कई साल पहले खुद प्रधानमंत्री रोजगार के अवसरों में अल्पसंख्यकों व वंचित तबकों के ज्यादा हक की पैरवी कर चुके हैं। सच्चर की सिफारिशों के बाद अल्पसंख्यक बहुल जिलों में बहुक्षेत्रीय विकास कार्यक्रम भी चल रहा है, लेकिन राज्यों की उदासीनता के चलते केंद्र उसमें भी खुद को असहाय पा रहा है।
इस बीच, बीते महीने मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के बाद तो राजनीतिक दलों में मुसलमानों की हिमायत की होड़ ही शुरू हो गई है। उसमें भी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे दल तो दो कदम आगे बढ़कर मुस्लिम मतों के हितों की बात करने लगे हैं।