बिहार चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी के अपने आंतरिक सर्वे होश उड़ाने वाले हैं. इस कारण सहयोगी दलों में भी खलबली मची है.
जनसत्ता में विवेक सक्सेना की रिपोर्ट
भाजपा को वसुंधरा राजे और सुषमा स्वराज के कारण पैदा हुए विवाद की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। दो माह बाद होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर करवाए गए सर्वे के नतीजे बेहद चौंकाने वाले हैं। इनके मुताबिक राज्य में भाजपा को सिर्फ 47 सीटें मिलने की संभावना है। इस खबर से राजग के सहयोगी दल उससे अलग होकर चुनाव लड़ने पर विचार कर रहे हैं।
भाजपा के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुके बिहार चुनाव उसके लिए बहुत बुरी खबर ला सकते हैं। सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे विवाद के बाद पार्टी की ओर से कराए गए सर्वेक्षण के नतीजे चौंकाने वाले हैं। सर्वेक्षण के मुताबिक आज के हालत में उसे विधानसभा चुनाव में केवल 47 सीटें ही मिल सकती हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में जद (एकी) के साथ चुनाव लड़ कर गठबंधन ने 247 सदस्यीय विधानसभा में 206 सीटें हासिल की थीं। लोकसभा चुनाव में भी भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने 40 में से 31 सीटें जीत लीं। हालांकि उन्हें 31 फीसद ही वोट मिले थे।
कुशवाहा का दो टूक
राजग के सहयोगी दलों रामविलास पासवान की लोजपा और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) को आशंका है कि अगले महीने होने वाले संसद के अधिवेशन में सरकार की और फजीहत होगी। यह सत्र अगस्त तक चलेगा। चुनाव आयोग कह चुका है कि सितंबर या अक्तूबर में कभी भी चुनाव कराए जा सकते हैं। ऐसी हालत में उन्हें लग रहा है कि भाजपा के साथ जाना घातक साबित हो सकता है। वैसे भी लोकसभा चुनाव के बाद दस विधानसभा उपचुनाव में भाजपा का लगभग सूपड़ा साफ हो गया था। इस कांड के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि बुरी तरह प्रभावित हुई है।
बिहार में भाजपा के सहयोगी दलों का मानना है कि अगर वे जीतन राम मांझी के साथ मिलकर अपना अलग फ्रंट बना कर चुनाव लड़ते हैं तो मुसलमान वोट भी उनकी ओर जा सकता है। पप्पू यादव के भी कुछ इलाकों में प्रभाव की अनदेखी नहीं की जा सकती।
पासवान की हिचकिचाहट
बताते हैं कि इसी रणनीति के तहत तीनों दल आपस में पहले राउंड की चर्चा कर चुके हैं। राम विलास पासवान राजग से अलग होने में हिचकिचा रहे हैं। वे इस समय केंद्र में कैबिनेट मंत्री हैं और किसी तरह का जोखिम लेने से कतरा रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक उन्होंने इस विचार को पूरी तरह से खारिज नहीं किया है। भाजपा सूत्रों के मुताबिक पार्टी के सवर्ण नेता भी अपने नेताओं की मनमानी से खुश नहीं हैं। ये नेता सुशील मोदी को किसी भी हालत में मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानने को तैयार नहीं हैं। उनका मानना है कि मोदी को संरक्षण देने वाले हाईकमान के बड़े नेता सब पर उनको थोप रहे हैं।
हाल ही में जो पार्टी के बड़े नेताओं के बयान आए हैं, उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। इनमें कीर्ति आजाद (ब्राह्मण), आरके सिंह (ठाकुर) हैं। भूमिहार भी पार्टी से खुश नहीं हैं। भूमिहारों को मनाने के लिए ही हाल ही में शीर्ष नेतृत्व को रामधारी सिंह दिनकर याद आ गए। चुनाव के ठीक पहले जयप्रकाश नारायण की याद में स्मारक बनाया जा रहा है। बताते हैं कि कुछ समय पहले उपेंद्र कुशवाहा ने नरेंद्र मोदी से मिलकर उन्हें यह बताया था कि अगर उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया गया तो शायद थोक भाव में कुशवाहा वोट हासिल करने में दिक्कत आ सकती है। सहयोगी दल के एक नेता के मुताबिक चुनाव तक वहां के राजनीतिक समीकरण कभी भी बदल सकते हैं।
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