लोकसभा में मिली हार के बाद पिछड़ियों जातियों का लालू प्नरसाद का आधार वोट भी भाजपा की तरफ खिसक गया है. ऐसे में मंडलवादी आंदोलन को वह फिर से धार देना चाहते हैं. पर क्या यह कारगर साबित होगा?
वीरेंद्र यादव, बिहार ब्यूरो चीफ
गणतंत्र की जननी वैशाली में राजद का दो दिवसीय प्रशिक्षण शिविर समाप्त हो गया। इस प्रशिक्षण का एक ही संदेश निकला कि अब राजद को आधार बनाए रखने के लिए मंडल की ओर लौटना मजबूरी है।
सवर्णों के लिए आरक्षण की मांग से राजद प्रमुख लालू यादव का मन अघा गया। सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष का नारा भी अब चूक गया है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर गोलबंदी की संभावना भी अब क्षीण होती नजर आ रही है। लोकसभा चुनाव में राबड़ी देवी और मीसा भारती की हार ने साबित कर दिया कि अब लालू, यादवों के सर्वमान्य व एकछत्र नेता नहीं रहे।
वैसे माहौल में लालू यादव के सामने गैरसवर्णों की एक मजबूत गोलबंदी के अलावा कोई विकल्प नहीं है और वह गोलबंदी मंडल आयोग के नाम पर ही दिख रही है। इसलिए वैशाली में लालू यादव को मंडल आयोग की याद आयी और उसे अब अपना अमोघ अस्त्र मान रहे हैं।
लेकिन पिछले 20-25 वर्षों में पूरी एक पीढ़ी जवान हो गयी है। लालू यादव के सत्तारोहण के दौर में पैदा होने वाला बच्चा आज 25 वर्षों का हो गया है। लेकिन लालू यादव 25 वर्ष पीछे लौटने को तैयार बैठे हैं। उस दौरान में मंडल आयोग से मिलने वाले लाभ के कारण पिछड़ी जातियों के लोग गोलबंद थे। लेकिन मंडल आयोग की महत्वपूर्ण सिफारिशों यथा नौकरी और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के बाद गोलबंदी दरकने लगी और आज पिछड़ा-अतिपिछड़ा ही नहीं, बल्कि यादव, कुर्मी, कुशवाहा, कहार, मुसलमान, धानुक, तेली आदि में बंटा है।
इतना ही क्यों, समाजवाद और सामाजिक न्याय के नाम पर लालू यादव ‘पारिवारिक न्याय’ में लगे रहे। नीतीश कुमार जब सत्ता में आए तो ‘कुर्मी न्याय’ में लगे रहे। लालू-राबड़ी-नीतीश राज में पिछड़ा बोध को धीरे-धीरे जातीय आग्रहों में तब्दील कर दिया गया। पिछड़ा मुसलमान भी अंसारी, धुनिया, राइन में तब्दील हो गया। यानी पिछड़ा समूह खानों में बंट गया।
लोकसभा चुनाव ने सबको झकझोर दिया। कभी मंडल के नाम पर गोलबंद जातियों का बड़ा हिस्सा लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ खड़ा दिखा। भाजपा ने अपना चेहरा बदला और उसने पिछड़ी जाति के नेताओं को खड़ा कर दिया। इस बार राजनीति के दो बड़े ध्रुव के केंद्र में पिछड़ी जातियां ही थीं। नरेंद्र मोदी की रणनीति के आगे परंपरागत रूप से पिछड़ी जातियों की राजनीति करने वाली पार्टियां हासिए पर चली गयीं और भाजपा का एक नया अवतार हुआ। इस अवतार ने लालू व नीतीश दोनों को मटियामेट कर दिया।
अब दोनों को अपने अस्तित्व पर संकट दिखने लगा। वैसे माहौल में दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे के बैसाखी बनते नजर आए। जब जीतनराम मांझी सरकार को समर्थन की जरूरत आयी तो राजद ने बिना मांगे समर्थन दिया। राज्यसभा ने चुनाव में जदयू के मांगने पर राजद ने समर्थन दिया। अब दोनों खुलेआम एक-दूसरे की मदद की बात करते हैं और वैशाली में इसकी औपचारिक घोषणा भी हो गयी।
अब सवाल उठता है कि अब अस्तित्व रक्षा के लिए लालू यादव का ‘मंडल राग’ लालू के प्रति लोगों में विश्वास पैदा कर पाएगा? लालू-नीतीश के भरत-मिलाप को लोग वास्तविक मान लेंगे? पिछले 25 वर्षों में बिहार का समाज, राजनीति, अर्थनीति, संस्कृति से लेकर मन-मिजाज तक बदल चुका है। इस बदलाव में मंडल आयोग अब कितना मानीखेज रह गया है यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा।