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अपने शोधपरक आलेख में वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार  हालिया दिनों में दलितों पर बढ़ते हमले और प्रताड़ना के विभिन्न पहलुओं को तलाशने की कोशिश की है. इस क्रम में उन्होंने दलित मुद्दों पर गंभीर लोगों की टिप्पणियों को आधार बनाया है.

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एक ओर देश की आजादी के 70 वर्ष के अवसर पर 15 अगस्त 2016 के दिन जश्ने आजादी मनाने की तैयारी हो रही थी तो वहीं 14 अगस्त को बिहार के खगडिया जिले के मानसी थाना के बख्तियारपुर गाँव के एक मंदिर मेंमहादलित युवक को प्रसाद चढ़ाने से पुजारी ने रोका

युवक के विरोध पर पुजारी और उसके समर्थकों ने की युवक की जमकर पिटाई कर दी। विरोध में महादलित लोगों ने एनएच 31 को जाम कर विरोध जताया। प्रशासन केहरकत में आने के बाद कार्रवाई हुई। गुजरात के बाद बिहार, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश या यों कहे देश के कोने कोने से दलित उत्पीड़न की घटनाएं आती रहती है

लेकिन इस बार गुजरात के दलितों ने विरोध का जो रास्ता चुना उससे तथाकथित सभ्य समाज और राजनेता सकते में हैं।

सवाल उठने लगा है कि आखिर आजादी के सात दशकों बाद भी दलितों पर जुल्म सितम क्यों? सदियों से अछूत, अस्पृश्य और हाशिये पर रहने वाले दलित वर्ग को द्विव्ज की बराबरी अभी तक क्यों नहीं मिली, आरक्षण के प्रावधानों के वर्षो से जारी होने के बावजूद दलित वर्ग को सवर्ण वर्ग के बराबर होेने का सम्मान नहीं मिल पाया है। इतना ही नहीं जो दलित मुकाम पा गये हैं उन्हें लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। दिव्ज कहते हैं आरक्षण से जोदलित लाभान्वित हो चुके हैं उन्हें और उनके परिवार के सदस्य को आरक्षण का नहीं मिलाना चाहिये। इन सबके बीच एक सवाल बार बार उठता है।

दलितों का दुश्मन कौन

दलितों को सब कुछ मिलने के बावजूद उन पर जारी उत्पीड़न के लिए कौनदोषी है? दलित का दुश्मन कौन है जो उन्हें समाज में बराबरी नहीं दे रहा है? इस सवाल का जवाब सोशल मीडिया पर खोजने का मन हुआ, क्योंकि यहीं से घोषित व अघोषित आवाज सुनाई पड़ जाती है।

देश में दलितों के उपर हमले और उनके हाशिये पर रहने के पीछे के कारणों के लिए ज्यादातर लोगों ने राजनीति को दोषी ठहराया और दोषियों में दलित नेताओं को भी प्रमुख माना गया। तो वहीं कईयों ने माना कि सोच बड़ीकरने से दुनिया बदल नहीं जाती है दुनिया बदलने के लिए लड़ना पड़ता है और लड़ने के लिए एकता की जरूरत पड़ती है। वहीं, सामाजिक आजादी मिलने की बात भी सामने आयी। दलित पर जुल्म सितम जारी होने के पीछे,ब्राहमणवादी सोच को भी दोषी ठहराया गया। उत्पीड़न के बढ़ने के पीछे शिक्षा को भी एक बड़ा कारण के रूप में देखा जा सकता है। देश में शिक्षा का अधिकार कानून 2010 से लागू है, जिसके तहत 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिएनिःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है। साथ ही सर्व शिक्षा अभियान जैसी महत्त्वपूर्ण योजना भी चल रही है। लेकिन इन सबके बावजूद चैंकाने वाला तथ्य यह है कि दलितों और मुस्लिमों की शिक्षा का बड़ाहिस्सा आज भी प्राइमरी शिक्षा से वंचित है।

गोरक्षकों की गुंडागर्दी

जाने माने दलित चिंतक आर एस  दारापुरी ने फेसबूक पर लिखा, कि गुजरात के दलितों ने मरे पशु न उठाने और चमड़ा न उतारने के काम का बहिष्कार करके एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। एक तो यह काम केवल दलितों परही थोपा गया है और दूसरे इस काम को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। इस पर इधर दलितों को गोरक्षकों की गुंडागर्दी और प्रताड़ना भी झेलनी पड़ रही है।

दलितों को नीच समझे जाने के कारण ही डॉ. आंबेडकर ने 1929 में इसे छोड़ देने का आवाहनकिया था। यह बात निश्चित है कि जब तक सवर्ण भी इस काम को करने के लिए बाध्य नहीं होंगे तब तक इसमें न तो कोई सुधार होगा और न ही इसका आधुनिकीकरण। इस पेशे के प्रति धारणा भी तभी बदलेगी जब सवर्ण भीइसे करने लगेंगे। दलितों द्वारा मरे पशुओं को उठाने के काम के बहिष्कार का असर गुजरात की इस तस्वीर में साफ दिखाई देती है। इसी लिए तो कहा है-

कौन कहता है कि आसमान में छेद नहीं हो सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!

इसी लिए अब दलितों को शेष राज्यों में भी गुजरात वाला पत्थर उछालना चाहिए।

कड़े तवर की जरूरत

बिलकुल सही कहा है दारा जी ने दलित उत्पीड़न के लिए किसी को दोषी ठहराने की बजाय गुजरात की तर्ज पर कड़े तेवर दिखाने की जरूरत है। और दलितों को शेष राज्यों में भी गुजरात वाला पत्थर उछालना चाहिए।

स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन का मानना है कि दलित उत्पीड़न के लिये ब्राहमणवादी सोच जिम्मेदार है। वहीं, आलोचक कैलाश दहिया मानते हैं कि दलित कौम चिंतन की हारी हुई कौम है। ब्राह्मण ने इसे अपनी व्यवस्थाका गुलाम बनाया हुआ है। दलित सोचता है कि कोई दूसरा आ कर इस की गुलामी को खत्म कर देगा। इसीलिए यह कभी बुद्ध की तरफ देखता है तो कभी गांधी की तरफ। बताइए, किसी को क्या पड़ी है जो वह दूसरे की गुलामी केलिए लड़े ? दहिया मानते हें कि अपनी गुलामी मिटाने के लिए खुद लड़ना-मरना पड़ता है। क्या दलित को ईश्वर ने हाथ, पांव, आंख, नाक, कान कम दिए हैं ? यह अपनी गुलामी के खात्मे के लिए मैदान में क्यों नहीं आता ?

कुछ विचार

चिंतक डॉ. धर्मवीर सही ही तो कहते हैं, दलित उबाल खा कर लड़ता क्यों नहीं। इसे किस बात का भय है ? आजीवक विमर्श दलित की गुलामी के खात्मे के लिए ही लड़ रहा है। चिंतन के स्तर पर हमने इस देश मेंप्रचलित द्विज परंपरा के हर विचार को ध्वस्त कर दिया है। इस में ब्राह्मण, बौद्ध और जैन तीनों हैं। आजीवक विमर्श को व्यवहार में लाने की जिम्मेदारी हर दलित की है, चाहे वह नेता हो या लेखक। यह निश्चित है कि कोईदलित इस से बच नहीं सकता।

राजेश कुमार फेसबुक पर लिखते हैं कि दलित का दुश्मन मनुस्मृति सोच रखने वाले तथा कथित अभिजात्य वर्ग के लोग हैं। जिसे दलित वंचित की तरक्की देखी नहीं जाती है। वे अपना हित साधने के लिए एकलव्य का अंगूठाभी मांग लेते हैं। दूसरा शत्रु खुद दलित है। उसे इतनी भी समझ नहीं है कि महज उसके आरमान मिलने से इतनी हायतौबा मचाने वाले लोग उसके परिजनों को मरने के बाद स्वर्ग तक कर्मकांड कराकर पहुंचा भी सकते हैं?

टी.वी. एंकर रश्मिी वात्सायन लिखती हैं आजादी के सत्तर साल बाद भी दलितों पर जुल्मो सितम जारी ..दोषी कौन ?उत्तर प्रश्न में ही छुपा है। आजादी के सत्तर साल बीत जाने के बाद भी यदि दलित,-दलित ही रह गए,देशके सामान्य मूल नागरिक न बन पाए तो कहीं न कहीं ये हमारी राजनीतिक इच्छाशक्ति की असफलता ही तो है.

यदि देखा जाए तो दलितों का सबसे अधिक शोषण राजनीतिज्ञ करते हैं । चुनावों के समय अक्सर राजनेताओं कादलित प्रेम जगता है। लेकिन हकीकत ये है कि ये सियासी लोग दलितों का वोट तो चाहते हैं लेकिन उनकी चिंता नहीं करते।

हालांकि, दलित उपर उठ रहे हैं सवर्ण के समांती हुकूमत को दरकिनार करने की पहल भी दिखने लगी है। ऐसे में दलित प्रजा को खोते देख सवर्ण तबका हतप्रभ रह गया है। वैसे, देश भरके आकंडे दलित उत्पीड़न की जोतस्वीर पेश कर रहे हैं। वह साफ है। दलितों के बराबरी के मुद्दे को राजनीतिक, ब्राहम्णवाद, सामाजिक बदलाव के दायरे में फंसा कर छोड़ा नहीं जा सकता है। बल्कि राजनीति,समाज, ब्राहम्णवाद यो कहें कि हर वाद को सामनेआना होगा और हाशिये के समाज को सिर्फ समाज की संज्ञा से जोड़ना होगा,जहंा कोई कोई अछूत या कोई अस्पृश्य नहीं हो। वहीं, दलित आंदोलनों के स्वरूप को भी दलितांे पर हो रहे उत्पीडन के लिए दोषी माना जा सकताहै

मुद्दे जो भटक जाते हैं

लेकिन सवाल यह भी उठता है कि सामाजिक परिवत्र्तन के लिए चलाया गया आंदोलन, क्या किसी वर्गविशेष के विरोध पर अवलंबित हो सकता है। वह भी उस स्थिति में जब आप उसी वर्ग विशेष की सोच बदलने की कवायद में जूटे हो! शायद नहीं।

सामाजिक एकरूपता लाने का कोई प्रयास समाज के सभी वर्गो को साथ लियेबिना कभी भी संभव नहीं हो सकती। ये तो कटुता को और भी बढ़वा ही देगा। दरअसल यही वह बिंदू है जहाँ कथित हिन्दूवादी संगठन दलित संगठनों के कामकाज में अंतर देखा जा सकता है। हिन्दूवादी संगठन राष्ट्रवाद केनाम पर समाज के सभी वर्गो को साथ लेकर चलने की बात करते है लेकिन दलित संगठन मनुवाद के विराध के नाम पर सिर्फ और सिर्फ दलितों को।

ऐसी स्थिति में मुद्दे पीछे झूठ जाते हैं और शेष रह जाता है ऐसे आंदोलनों काअलगाववादी चरित्र।

इसलिए दलित आंदोलन का स्वरूप पर व्यापक विमर्श होनी ही चाहिये क्योंकि दलितों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करना पूरी तरह से सवर्णो की मानसिकता परिवत्र्तन का मामला है।

 

[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2016/08/saanjay-air.png” ]संजय कुमार पटना स्थित वरिष्ठ पत्रकार व लेखक हैं. हाल ही में उनकी लिखी पुस्तक- ‘मीडिया में दलित:ढूंढते रह जाओगे’ काफी चर्चित रही है.[/author]

By Editor


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