बिहार में मंत्रियों की क्या हैसियत है। अपने निर्णय के लिए वह कितने स्वतंत्र हैं। उनके आदेशों का कितना अमल होता है। इसके लिए कोई शोध की आवश्यकता नहीं है। यह जगजाहिर है। शुक्रवार को खेल सम्मान समारोह में खेल मंत्री विनय बिहारी ने मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के सामने ही खुद स्वीकार किया कि वह सामान्य प्रशासन विभाग के प्रधान सचिव से मिलने का समय मांगते रहे और वह समय नहीं देते हैं। जबकि नियमों के अनुसार, मंत्री प्रधान सचिव को सीधे बुला सकते हैं।
बिहार ब्यूरो
उसी दिन मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने नागरिक व पुलिस प्रशासन के अधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा था कि अधिकारी जनप्रतिनिधियों की सुनें, उनको सम्मान दें। उनका ध्यान इस बात पर भी था कि थानों में जनप्रतिनिधियों का सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन यहां तो मंत्री की नहीं सुन रहे हैं वरीय अधिकारी तो आम जनप्रतिनिधि की कौन सुनेगा। मंत्री की स्वीकारोक्ति से यह बात तो स्पष्ट हो गयी है कि सरकार मंत्री नहीं, नौकरशाह चला रहे हैं।
ग्राम पंचायत से कैबिनेट तक के हालात एक ही हैं। हर जगह एक ही शिकायत सुनने को मिल रही है कि अधिकारी व कर्मचारी बात नहीं सुन रहे हैं। आखिर ऐसी हालत क्यों पैदा होती है। इसके पीछे कहीं अवारा पूंजी की भूमिका तो नहीं है। विकास योजनाओं के नाम पर असीमत राशि आ रही है। पैसा इतना आ रहा है कि इसका पूरा इस्तेमाल भी नहीं हो रहा है। खर्चा बढ़ाने के लिए ‘ओवर एस्टीमेट’ प्लान बनते हैं। मुख्यमंत्री स्वयं कहते हैं कि अपना घर ढाई लाख में बनता है और वही सरकार घर बनाने में 15 लाख की राशि कैसे खर्च होती है। इसका सीधा सा गणित है कि इस राशि में सरकारी अधिकारी व कर्मचारी के साथ जनप्रतिनिधि भी शेयर होल्डर होते हैं। इन पैसों की निकासी व खर्च का अधिकार सरकारी अमले के पास होता है। वैसे में जनप्रतिनिधि मांगने या लेने की भूमिका में होते हैं। फिर कमीशन लेने वाले जनप्रतिनिधियों का सम्मान अधिकारी व कर्मचारी क्यों करेगा।
सम्मान का सीधा संबंध पैसों से जुड़ा हुआ है। वैसीस्थिति में जनप्रतिनिधियों को पैसा और सम्मान एक साथ नहीं मिल सकता है। दरअसल पैसा और सम्मान का अंतर्विरोध ही आवारा पूंजी की देन है। उस माहौल में जनप्रतिनिधि विवश और नौकरशाह निरंकुश ही रहेंगे।