नौकरशाही डॉट इन के उत्तराखंड ब्यूरोचीफ जय प्रकाश पंवार ‘जेपी’ इस बार उत्तर की पहाड़ियों को छोड़ उत्तरपूर्व की नदियों के भ्रमण पर निकल पड़े.उन्होंने प्राकृतिक आपदाओं को समझने और उसके कुछ अनछुए पहलुओं को पेश किया है. पढ़ें पहली कड़ी-
जब आप उत्तर से सुदूर उत्तर पूर्व की ओर जाते हैं तो हिमालय की विस्तृत फैली पर्वत श्रंखलाओं में विविधता का साम्राज्य फैला हुआ मिलता है. विशेषकर भारत के पहाड़ी राज्यों की बात करें तो उत्तर में कश्मीर, जहां पाकिस्तान और चीन की सीमा से लगा हुआ है वहीं, हिमाचल के साथ चीन अधिकृत तिब्बत, उत्तराखण्ड के साथ तिब्बत व नेपाल और उत्तर पूर्व के राज्यों की सीमाओं के साथ नेपाल, भूटान, चीन, बर्मा और बांग्लादेश की सीमायें जुड़ी हुई हैं.
जब आप दिल्ली से उत्तरपूर्व की ओर हवाई यात्रा करते हैं, तो हिमालय की विस्तृत श्रंखला के दर्शन कर सकते हैं. जो कि बर्मा सीमा पार करने तक दिखती रहती है. कश्मीर में पाकिस्तान से हर साल हो रही घुसपैठ एक बड़ी चिन्ता का विषय है जिस कारण कई वर्षो से कश्मीर के पहाड़ी लोग आतंक के साये में जी रहे हैं. यहां अलगाववादी तत्वों एवं संगठनों को पाकिस्तान एवं चीन द्वारा मदद मिलती रही है. जिससे कि वे अलगाववादी कार्यक्रमों का संचालन करते रहे हैं. यही स्थिति उत्तर पूर्व के राज्यों में भी देखने को मिलती है. यहां उत्तर पूर्व के अलगाववादी संगठनों को चीन व बांग्लादेश से मदद मिलती रही है. यही वे कारण है जिससे हिमालय के ये पहाड़ी राज्य कई वर्षो से अशान्त हैं.
असम का बड़ा भूभाग नदियों में विलीन
पहाड़ों की दूसरी सबसे बड़ी समस्या प्राकृतिक आपदायें हैं. हिमालय के इन पहाड़ी राज्यों को हर साल भूकम्प, भूस्खलन, बादल फटना, जंगलों की आग, बाढ़ जैसी समस्याओं से दो चार होना पड़ता है. जब मैं बारीपेटा-आसाम राज्य के भ्रमण पर था, तो केन्द्रीय जल संसाधन म्ंत्री हरीश रावत इसी दौरान असम के मांझुली इलाकों में ब्रह्मपुत्र की बाढ़ द्वारा हुये विनाश की समीक्षा कर रहे थे. असम के अखबारों में दूसरे दिन खबर थी कि वहां के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई ने केन्द्रीय मंत्री के समक्ष यह बात रखी कि भूमि कटाव को राष्ट्रीय आपदा का हिस्सा बनाया जाये. उन्होनें यह तथ्य प्रस्तुत किये कि असाम का लगभग 40 प्रतिशत भूभाग बाढ़ग्रस्त है व हर साल बाढ़ की वजह से सैकड़ों गांव बह जाते हैं, सैकड़ों हेक्टेयर भूमि बह जाती है या वह खेती लायक नहीं रहती है. गोगोई कह रहे थे कि सन् 1950 से लेकर अब तक असम की कुल भूमि का लगभग 8 प्रतिशत भूमि ब्रह्मपुत्र नदी व अन्य नदियों द्वारा बहाया जा चुका है. इस विभीषिका के अन्दाजे की अगर हम उत्तराखण्ड से तुलना करें तो लगभग इतनी ही भूमि पर उत्तराखण्ड के लोग अपना जीवन जी रहे हैं. क्योंकि लगभग 90 प्रतिशत भूमि तो जंगल, नदी, पहाड़ इत्यादि के रूप में सरकार के कब्जे में हैं.
उत्तराखण्ड में भी हर साल बादल फटने, भू-स्खलन एवं भूमि-कटाव की वजह से भूमि मनुष्य के उपयोग के लिए नहीं रह पाती . पिछले साल उत्तरकाशी और उखीमठ सहित तराई के इलाकों में हुई तबाही इन बातों की तसदीक करती हैं. बाढ़, बादल फटने से हुई आपदा को व उसके कारण हुये नुकसान को सरकारी नियमों के हिसाब से राष्ट्रीय आपदा की श्रेणी में न रखा जाना एक अमानवीय व आश्चर्यजनक पहलू हैं. असाम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई अगर भूमि कटाव को राष्ट्रीय आपदा का विषय बनाते हैं व इसकी मांग करते हैं तो बात की गम्भीरता को आसानी से समझा जा सकता है.
असाम में हर साल आने वाली ब्रह्मपुत्र की बाढ़ से न केवल भूमि कटाव होता है बल्कि खेती, पशुपालन, जन-धन, सड़क, बिजली, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार सब कुछ ध्वस्त हो जाता है. सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि ऐसे इलाकों में विकास कार्यक्रम ध्वस्त हो जाते हैं. हजारों लोगों को हर साल सुरक्षित इलाकों में विस्थापित करना पड़ता है व उनके पास, कि वे भारत के नागरिक हैं इस बात का भी सबूत नहीं रह पाता है.(…. जारी.. इस लेख का अगला भाग कल)