जरा सोचिये! जिन समुदायों को हर साल अपना गांव, व्यवसाय बदलना पड़ता हो उन समुदायों की स्थिति क्या होगी?
जय प्रकाश पंवार, ब्यूरो प्रमुख, नौकरशाही डॉट इन
भिन्न-भिन्न समय पर हुये आपदा सर्वेक्षण से यह बात भी सामने आयी है कि अपने उत्तराखण्ड के सैकड़ों गांव भूमिकटाव, भूस्खलन, भूकम्प, बाढ़ आदि कारणों से जीवन जीने लायक नहीं रह गये हैं. लोग मजबूरी वश ऐसे इलाकों में जीने को अभिशप्त हैं. प्राकृतिक आपदाओं या उनके कारण होने वाली आपदाओं को राष्ट्रीय आपदा का विषय बनाना जरूरी है.
हर साल होने वाली ऐसी आपदाओं के कारण स्थानीय समुदाय पर पड़ने वाले दुष्परिणामों की झलक भी देख लेते हैं. बांग्लादेश की सीमा से लगे धारंग, बारीपेटा, धिमजी, जनपद जिसके मध्य से होकर कई किलोमीटर चैड़ी फैली ब्रह्मपुत्र नदी बांग्लादेश में प्रवेश करती है. इस जल सीमा से हर रोज रात्रि के समय बांग्लादेश से लोग छुपते-छुपाते नावों में बैठकर भारत की सीमा को पार कर लेते है.
ब्रह्मपुत्र नदी की धारा के बीच-बीच में सैकड़ों जलद्वीप बने हुये हैं. इन जलद्वीपों में आकर ये लोग स्थानीय लोगों के साथ कब्जा कर लेते हैं।.इन द्वीपों पर रहने वाले अधितर ग्रामीण पूर्व में आये हुए बांग्लादेश के नागरिक ही होते हैं.
किसी जमाने में ये क्षेत्र हिन्दू बहुल थे लेकिन अब बांग्लादेशी बहुल हो चुके हैं. बांग्लादेशी घुसपैठियों को इन इलाकों में आने की अथवा घुसपैठ करने में काफी सरलता है जैसे भाषायी समानता व आसानी से नदी, जलद्वीपों पर अस्थाई भूमि का उपलब्ध होना, सरल जीवन शैली, मछली पकड़ना, मजदूरी करना व इससे जीवन चलाना यहां अपेक्षाकृत उन्हें बांग्लादेश से आसान लगता है क्योंकि भूमण्डलीय तापमान बढ़ने से व समुद्री जल स्तर बढ़ने के कारण बांग्लादेश की भूमि हर साल जलमग्न होती जा रही है. असम के इन इलाकों में साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपनाते हुये स्थानीय बोडो आदिवासियों की जमीन, जंगल व उनके हक पर कब्जा करना शुरू कर दिया है. यही वे कारण है जिनकी वजह से इन इलाकों में हर साल सामप्रदायिक दंगे, मर्डर, चोरी, अपहरण जैसी घटनायें सामन्य बात हो गई हैं.
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कई साल से बोड़ो आदिवासी लोग भारतीय संविधान के अन्तर्गत लद्दाख, दार्जलिंग व इसी तरह की स्वायत परिषद चाहते हैं जिससे कि वे अपने अधिकार की सुरक्षा कर सकें. लेकिन इनकी ये मांगे वोट बैंक की राजनीति की भेंट चढ़ गयी लगती हैं. अभी पिछले दिनों ही असम में स्थानीय ग्राम पंचायतों से लेकर जिला परिषदों के चुनाव समपन्न हुये हैं जिसमें असम के सभी जनपदों में कांग्रेस पार्टी की भारी जीत हुई लेकिन बांग्लादेशीय घुसपैठिये बहुल जिलों में 90 प्रतिशत उम्मीदवार आल इण्डिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रण्ट (ए.आई.यू.डी.एफ) के जीतकर आये. ए.आई.यू.डी.एफ बांग्लादेशी घुसपैठियों की समर्थित पार्टी बतायी जाती है. पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय, त्रिपुरा आदि सीमाओं से आने वाले बांग्लादेशी भारत से होते हुये उत्तराखण्ड तक भी पहंुच चुके हैं. उपरोक्त बातों से यह समझ में आता है कि जब स्थानीय लोगों की अवहेलना होती है, तो उससे उग्रवाद, अलगाववाद, सामप्रदायवाद, क्षेत्रवाद जैसी समस्यायें पनपने लगती हैं.
आज अधिकांश पहाड़ी राज्य ऐसी ही समस्याओं से जूझ रहे हैं. सौभाग्य से अभी उत्तराखण्ड में इन समस्याओं ने उग्रवाद का रूप तो नहीं लिया है लेकिन जिस तरीके से राजनीतिक तुष्टिकरण की वजह से तराई के शरणार्थियों, हर साल नदी, नालों पर बढ़ रही झुगी-झोपडि़यों व पहाड़ की जमीनों, नदियों व संसाधनों पर कब्जा बढ़ता जा रहा है उससे उत्तराखण्ड भी दूसरा आसाम बन सकता है. इस बात के सैकेड़ों सबूत राज्य में देखने को मिलने शुरू हो गये हैं. धीरे- धीरे उत्तराखण्ड के स्थानीय लोग विशेषकर पहाड़ी समुदाय राज्य में अपनी वोट की ताकत भी खोता जा रहा है. अभी चीन ने भारत में अशान्ति फैलाने के कई उपायों पर न सिर्फ विचार करना बल्कि क्रियान्वयन करना भी शुरू कर दिया है। चीन उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर व उत्तरपूर्व राज्यों की सीमाओं पर सड़क, संचार सुविधाओं एवं सैन्य छावनियों की स्थापना कर चुका है. दूसरी रणनीति के अनुसार चीन भारत में आने वाली नदियों पर विशाल बांध बनाकर भारत में जल समस्या पैदा करना चाहता है व जब बाढ़ व वर्षा की स्थिति हो तो बांधों को खोलकर अरूणाचल, आसाम जैसे राज्यों में बाढ़ व सूखे जैसी स्थितियां पैदा कर तबाही मचाना चाहता है.
ब्रह्मपुत्र नदी पर चीनी बांध
असम भ्रमण के द्वौरान ही यह खबर प्रमुखता से मिली कि चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर कई बड़े बांध बना रहा है. इससे ब्रह्मपुत्र का पानी चीन के सूखे क्षेत्रों की ओर प्रवाहित होना शुरू हो जायेगा व भारत के इन राज्यों में सूखे की स्थिति पैदा हो जायेगी. ब्रह्मपुत्र नदी आसाम व अरूणाचल प्रदेश की आर्थिकी की रीढ़ है. केन्द्रिय सरकारों ने हमेशा ही पर्वतीय राज्यों के साथ सौतेला व्यवहार रखा है. इन राज्यों के सतत विकास एवं भविष्य की योजनाओं पर कभी भी गम्भीरता से बात नहीं हुई. इसी कारण इन राज्यों में अशान्ति व उग्रवाद बार-बार सिर उठाता रहता है. ब्रह्मपुत्र, गंगा जैसी नदियां भले ही बाढ़ से तबाही मचाती हों लेकिन लोग जानते हैं कि इन्ही नदियों से उनका जीवन है.
उत्तरपूर्व के राज्यों में हिन्दी बोलने वाले ढंढने सेभी नहीं मिलते. यहां अधिकतर साईन बोर्ड स्थानीय भाषाओं में ही लिखे हुये मिलेंगे. ज्यादातर लोग स्थानीय भाषा का ही इस्तेमाल करते हैं व हिन्दी के बजाय बांग्ला भाषा ज्यादा लोकप्रिय है. कभी-कभी ऐसा महसूस होता है कि असम, पश्चिम बंगाल व बांग्लादेश एक ही हैं.सांस्कृतिक विविधतता वाले भारत देश की एकता के लिए यह जरूरी है कि राष्ट्रीय व सांस्कृतिक योजनाओं को गम्भीरता से लिया जाये.किसी जमाने में जब बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग हुआ था तब उत्तर पूर्व के सांस्कृतिक राजदूत भूपेन हजारिका ने गाया था-
‘‘जय जय बांग्लादेश……..जय जय मुक्तिवाहिनी…….जय जय मुजिबुर्र रहमान।