उत्तर प्रदेश में पुलिस द्वारा विवेक की हत्या दर असल सिस्टम की हत्या है
अकु श्रीवास्तव, वरिष्ठ पत्रकार
डर तो अब लखनऊ से भी लगने लगा है। जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा बाहर बिताने के बाद जब भी आने की बात होती है तो लगता है कि कितना बदल गया है शहर – ए – लखनऊ। तमीज खा ली गई है ।
आप सुनने को आप तरस जाते हैं। दबंगई मोटरसाईकिल वाले से लेकर फारचूनर वाले की साफ दिखती है। सत्ता में न होने पर भी सपाई डराते हैं और भाजपाईओं का तो अब हक सा लगता है। विवेक तिवारी तो एक चेहरा भर हैं। इत्तेफाक से वो एप्पल का अफसर था, इसलिए थोड़ा हंगामा है, थोड़ी गहमागहमी है। यही अगर कोई छोटी – मोटी कंपनी का कर्मचारी होता तो मुठभेड़ बता दी जाती और हम एेसे लोग सराहना भी कर रहे होते कि क्या डंडे का डर है।
विवेक की हत्या सिस्टम की हत्या तो है ही हमारी संवेदनशीलता का भी जीता जागता उदाहरण है।
शहर का कोई भी बाजार देख लीजिए..पुलिसवालों ने उसे कोठा बना दिया है। पैसा दो , जो मर्जी में आए करो।चालीस फुट की रोड दस फुट में करने की छूट हो गई है। अमीनाबाद , चौक, भूतनाथ, गोमतीनगर , कई चले जाइए, बाजार गुलजार है।
चलने के लिए जगह नहीं है। पैसा नीचे से चलना शुरू हो गया है, ऊपर से फिसल रहा है। दारू की दुकाने खुले आम बार हो गई हैं। और जब एेसा है..तो कोई भी किसी को गोली मार सकता है।कभी कोई पुलिसवाला चौधरी होकर तो कभी कोई भाई का एजंट होकर। इसलिए हत्या होने से पहले मां- बहन की गाली खाने पर थैंक्यू कहना जारी रखिए।