जो लोग उपेंद्र कुशवाहा के उन दिनों के संघर्ष से वाकिफ हैं जब वह राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के गठन का प्रयास कर रहे थे तो उन्हें ये पूरी तरह स्पष्ट है के किस तरह उपेंद्र कुशवाहा ने महात्मा ज्योतिबा फुले के नाम पर बने ” अखिल भारतीय महात्मा फुले समता परिषद् ” का इस्तेमाल अपनी पार्टी को वैचारिक स्तर पर वैचारिक कार्यकर्ताओं को अपनी पार्टी से जोड़ने के लिए किया था।
काशिफ यूनुस
ज्योतिबा फुले के सपनों को इकीसवीं शताब्दी में धरातल पर लाने के लिए तमाम तरह के प्रयास करने का वादा उपेंद्र कुशवाहा ने जनता से किया था।
अब ज़रा देखें के ज्योतिबा फुले क्या थे ? ज्योतिबा फुले के “सत्य शोधक समाज ” का पूरा संघर्ष समाज से मनुवादी सोंच को खत्म करने और समाज को पंडों के कर्म कांडों से छुटकारा दिलाने के लिए था। फुले सनातन धर्म और वैदिक धर्म के कर्म कांडों से घोर आहत थे। हाँ वो ईश्वर में विश्वास ज़रूर रखते थे लेकिन ईश्वर और मनुष्य के बीच दलाली का धंधा खोले बैठे पंडों के कर्मकांडों से दुखी थे। वैदिक और सनातन ब्राह्मणों के द्वारा बनाये गए नियमों से समाज में औरतों की जो दुर्दशा हो रही थी उसकी पीड़ा भी उनकी किताब “गुलामगिरी” में मिलती है।
अब देखते हैं के उनके अनुयायी उपेंद्र कुशवाहा क्या कर रहे हैं। ” अखिल भारतीय महात्मा फुले समता परिषद् ” से “राष्ट्रीय लोक समता पार्टी” और फिर भारत सरकार में मंत्री बनने का उनका सफर काफी सुनहरा रहा होगा। लेकिन इस लेख में हम यह देखने की कोशिश करेंगे के इस सफर में आगे बढ़ते हुए कहीं महात्मा फुले के आदर्श तो बहुत पिछे नहीं रह गये ?
आज जबके उपेंद्र कुशवाहा केंद्र में मानव संसाधन मंत्री हैं तो उनके पास महात्मा फुले की विचारधारा को बढ़ाने का सबसे अच्छा मौक़ा है। मानव संसाधन मंत्रालय के द्वारा महात्मा फुले की लिखी हुई किताब “गुलामगिरी ” को पुरे भारतवर्ष के लोगों तक पहुँचाया जा सकता है। जब हमारी स्कूली किताबों में “रामायण” और “महाभारत” जैसी काल्पनिक कहानियों को जगह मिल सकती है तो “गुलामगिरी” में लिखी सच्ची घटनाओ को क्यों नहीं ?
अब आयें मंत्रालय से थोड़ा बहार निकलकर पार्टी की बात करते हैं। पार्टी के किसी पदाधिकारी से पूछिये के क्या आपने “ग़ुलामगिरि” पढ़ी है। क्या आपने “सत्य शोधक समाज” के उद्देश्यों को पढ़ा है ? आपका मुंह गौर से देखेंगे फिर चुप चाप चले जायेंगे। आपको पार्टी में बहुत कम लोग ऐसे मिलेंगे जो ये पूछें के “गुलामगिरी” किस चिड़िया का नाम है ? ऐसा इसलिए के पार्टी के कार्यकर्मो में वो अक्सर “गुलामगिरी” और “सत्य शोधक समाज” का नाम सुनते रहते हैं लेकिन पार्टी का अपना ऐसा कोई विंग नहीं है जो कार्यकर्ताओं तक “गुलामगिरी” जैसी किताबों को पहुँचाने की कोई व्यवस्था करे। तो क्या ऑफिस और घर में ज्योतिबा फुले की तस्वीर को टांग देने भर से आज के युवा उनके विचारों से अवगत हो जाएंगे? आखिर उपेंद्र कुशवाहा पार्टी के अंदर ऐसी कोई व्यवस्था क्यों नहीं करते ? कहीं सवर्ण वोटों का लालच तो उन्हें महात्मा फुले के आदर्शों को आगे बढ़ाने से नहीं रोक रहा ?
उपेंद्र कुशवाहा के की ” राष्ट्रीय लोक समता पार्टी” के अलावा शरद पवार की “राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ” में भी महात्मा फुले की खूब क़दर है। शरद पवार ने अभी कूछ दिनों पहले गाये के विवाद पर बोलते हुए ये स्पष्ट किया था के वो और उनका समाज गाये की पूजा नहीं करते। लेकिन उपेंद्र कुशवाहा तो इतना भी न कह सके। कुशवाहा के मुक़ाबले तो उदित राज और शरद पवार जैसे लोग ही अपनी विचारधारा को लेकर ज़्यादा मुखर हैं। हालाँकि उदित राज भाजपा के टिकेट पर चुनाव जीत कर आये हैं इस लिए अपने राजनितिक करियर की ज़्यादा फ़िक्र तो उन्हें होनी चाहिए थी। लेकिन सत्ता में बने रहने के लिये उदित राज अपनी विचारधारा से समझौता करने को तैयार नहीं हैं। शायद ऐसा इसलिये है की उदित राज की वैचारिक ट्रेनिंग उपेंद्र कुशवाहा से बेहतर हुई है। अगर उपेंद्र कुशवाहा जैसे लोग ही महात्मा फुले के अनुयायी बनते रहे तो न जाने ज्योतिबा फुले के आदर्शों और विचारों का क्या होगा।