आडवाणी जी ने एमकेके नैयर की किसी किताब के हवाले से अपने ब्लाग में लिखा है कि कैबिनेट की किसी मीटिंग में हैदराबाद निज़ाम के किसी प्रसंग में नेहरू ने पटेल को ‘पूरी तरह सांप्रदायिक’ क़रार दिया था.
अरुण माहेश्वरी
बंद कमरे में कैबिनेट की बैठक के बारे में किसी नौकरशाह की मनगढ़ंत किस्सागोई के ऐसे आधारहीन हवालों से किसी बात का दावा करना हल्कापन और बौद्धिक ग़ैर-ईमानदारी है।
सच यही है कि कैबिनेट के सभी निर्णयों की सामूहिक ज़िम्मेदारी होती है । तत्कालीन भारत सरकार ने जो क़दम उठायें, बात उन पर होनी चाहिये । उन क़दमों के लिये प्रधानमंत्री और उप-प्रधानमंत्री दोनों समान रूप से ज़िम्मेदार माने जायेंगे ।
अगर ऐसी किस्सागोइयों को ही गंभीर विमर्शों का आधार बनाया जाने लगे, तो अफ़वाहों को ही क्यों नहीं प्रामाणिक ख़बरें माना जाने लगे ! तब सच और झूठ को परखने का कोई मानदंड ही नहीं बचेगा ।
आडवाणी जी का पटेल-नेहरू वाली बहस में ऐसे कोरे क़िस्सों के साथ कूदना, उनके बौद्धिक स्तर की थाह देने के लिये काफ़ी है ।
दूसरों के क़िस्सों के बजाय वे २००२ के गुजरात के जन-संहार के वक़्त राजग सरकार की कैबिनेट बैठकों के ब्यौरों और उनमें ख़ुद की भूमिका के बारे में या जिन्ना की प्रशंसा के संदर्भ में आरएसएस के साथ बैठकों के किस्सें लोगों को सुनाते तो शायद ज़्यादा लाभ होता ।
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