आपका एक फैसला आपके निजी और समाजिक जीवन को बदल देता है, पर कभी कभी आप अनिर्णय या गलत निर्णय के शिकार होते हैं. इस आलेख में नवीन कुमार निर्णयक्षमता का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर रहे हैं.decession.making

निर्णय सिद्धान्तहीन क्यों ना हो परन्तु लोकप्रिय अवश्य होना चाहिए ! जिन्हें संगी मान बैठे भला उनके लिए आदर्शों की चंद कुर्बानी पर अफ़सोस क्यों! कुछ ऐसे ही रंग में रंगा हुआ हर आता जाता दिख जाता है। ऐसे में एक सहज प्रश्न उठता है –“निर्णय क्षमता का विकास समय की धारा के साथ स्वतः क्यों नहीं होता”? कुछ खास परिस्थितियाँ हमें किंकर्तव्यविमुढ़ बनाने में उम्र के किसी भी दहलीज़ पर सफल क्यों हो जाती हैं ? क्या निर्णयक्षमता का विकास भी संज्ञानात्मक कौशल – विकास के तौर पर लर्निंग का अहम् भाग होना चाहिये ?

निर्णय एक संज्ञानात्मक प्रक्रिया (Cognitive Process) है। सामान्यतः कारण , झुकाव, सम्बद्ध कारकों के प्रति भावना, पूर्वकालिक स्मृति/ अनुभव, तात्कालिक मनःस्थिति एवं इक्षाशक्ति विकल्प सुझाते हैं इसी के अनुसार निर्णय पर पहुँचकर उसे व्यवहार में लाने की दिश में बढ़ते हैं.

निर्णय और मानसिक चेतना


निर्णय लिया जाना मानसिक चेतना की अवस्थाओं पर भी निर्भर करता है।आप पूर्णतः सचेत अवस्था में ना हों, सचेत एवं सुबोध हों पर आप किसी के प्रभाव में हों, या फिर लिया गया निर्णय पूर्णतः सचेत अवस्था में लिया गया हो तथापि क्रियान्वयन के उपरांत भी द्वन्द्व बरकरार रहे।

निर्णय के बोधगम्य होते हुए भी गलत निर्णय तक पहुँचना पूर्वाग्रह कह सकते हैं। पूर्वाग्रह दरअसल मानसिक विकास यात्रा की लम्बी कहानी अपने साथ संजोये चलता है जिसमें कहीं किसी से मिली सहायता तो कभी किसी से मिली दुखदायी स्मृतियाँ ही अलग अलग पड़ाव के तौर पर मिलती है। पूर्ण चेतना से अलग अवस्था -“अवचेतन” की अवस्था में लिये गये निर्णय का आधार पूर्वकाल की संग्रहित स्मृतियाँ होती है जो जाने अनजाने में भिन्न भिन्न तरह की संचित जानकारियों को आपस में जोड़कर कुछ विकल्प सुझा देती है, पर मजे की बात है कि यहाँ इच्छाशक्ति ही निर्णय की प्रक्रिया को मार्गदर्शन देती है।

ऐसे में फिर से लम्बे समय से संपोषित सोच को ही आधार तत्व मान सकते हैं। तीसरी स्थिति द्वंद्व की है। Psychoanalysis के क्रम में ऐसे अनेकों किशोर/वयस्क मिले जिनमें Multiple Intelligences प्रभावित करने वाले दायरा में मिला लेकिन एक समस्या आम रही – “निर्णय पर अमल कर जाने के बाद अपने निर्णय से असंतुष्ट बने रहना, ऐसे विकल्प जिन्हें क्रियान्वयन में नहीं लाया उनके विषय में सोचकर पश्चाताप करना, यह उपयुक्त था या वह होता, या ….”। इस श्रेणी के बच्चों/किशोरों /वयस्कों सभी को अपेक्षाकृत कम समय में निर्णय क्षमतावान बनाया जा सकता है।

बच्चों में गलत निर्णय के कारणों की पड़ताल


• अनुभव की कमी एवं सन्दर्भ को समझने में अल्प-योग्यता : अनुभव की कमी जल्दबाज़ी में विकल्प चुनने की आदत पर रोक नहीं लगा पाता, वहीं सन्दर्भ को पूरी तरह से नहीं समझने के कारण उपलब्ध जानकारियों का समुचित शोधन नहीं हो पाता ।

• आत्मकेंद्रित सोच: अहंभाव, अत्यधिक अपेक्षा या स्वार्थी सोच मानसिक विकास के प्रारम्भिक अवस्था में मिलते हैं, इनके आधार पर लिया निर्णय टिकाऊ नहीं हो सकता।
• गलत परामर्श के आधार पर लिया गया निर्णय : सम्पादित क्रिया किसी के उकसावे में आकर की जा सकती है।परिणाम पश्चाताप कराने में पर्याप्त हो सकते हैं। जितना पश्चाताप उतना क्षमता का विकास, पर ये उसी के साथ होगा जिसके परिवार में व्यावहारिक मापदंड ऐसी गलतियों को कतई स्वीकार नहीं करता , अन्य बच्चों में समय के साथ नकारात्मक सोच विकसित होता चला जायेगा, परिणामतः परिस्थिति चाहे कोई हो प्रतिघात, क्षमा और नजरअंदाज़ करने की तीनों श्रेणियों में से अधिकांश बच्चों को प्रथम दोनों विकल्प ही दिखेंगे, जिसमें प्राथमिकता प्रतिघात को मिलना तय है। इसमें कोई आश्चर्य ही नहीं यदि नज़रअंदाज़ करने का विकल्प जेहन में उपजे ही नहीं।

• परिस्थियों में प्रेरणा चयन का तरीका: शोधकर्ताओं ने पाया कि बच्चे निर्णय की लोकप्रियता को अधिक महत्व देते हैं। लोकप्रियता को तवज्जो देना अपने अंदर अत्यधिक अपेक्षा पालने एवं आत्मप्रशंसी बनने जैसी आदत विकसित कर देता है। आगे के जीवन में जब ये निर्णायक भूमिका में आते हैं तब “घनिष्टता का माध्यम शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के कान से नजदीकी बनाना” जैसे तरीकों से निपट नहीं पाते हैं । वे समझ नहीं पाते कि कार्यक्षेत्र में केवल कर्तव्यनिष्ठा ही एकमात्र माध्यम होना चाहिए शीर्ष पर आसीन व्यक्ति से शाबासी के लिए, और फिर अपसंस्कृति डंके की चोट पर आगे बढ़ता चलता है, भला ऐसे में सही निर्णय गुल्लर का फूल नहीं तो और क्या हो। बाल्यकाल में सहपाठियों की आवाज़ पर विकल्पों/ परिणामों की अनदेखी करने वाले लोकप्रियता के ही मद्य में होते हैं। यूथभ्रष्ट करार न दिए जायें इसके भय से साथ देने वाले सुबोधजन सुबह को भूलकर शाम को लौट आते हैं, उनमें बोध पाया गया है।

• Choosing is Losing: जो पसंद आ जाये बस पा लेना है। इच्छित वस्तु का मोल क्या लगाया जाय वह तो मन की तरंगों पर मचलते रहता है, फिर तो वह अनमोल ही हुआ, भला ऐसे में इसके पीछे किस -किस की बलि पड़े, किसे पड़ी है। सामने प्राप्त होने वाले वस्तु की कीमत बढ़ चढ़ कर लगाना और दूरगामी परिणामों की अनदेखी या उन्हें कमतर आँकना ,यह एक Cognitive Bias है , जिसके शिकार व्यस्क भी हैं। यह समस्या किशोरों को सर्वाधिक चपेट में लेता है। शरीर में चल रहे हार्मोनल परिवर्तन भी आग में घी डालने का कार्य करता है। ऐसे में बचाव के उपाव दिनचर्या को व्यस्त रखकर तथा अपनी स्वतंत्रता के ऊपर बंदिश स्वीकार कर हो सकता है।

निर्णयक्षमता का विकास

परिवार की भूमिका आरंभिक बीजारोपण के लिए अहम् है। आगे के चरणों में Cognitive Behavioural Correction Based Pedagogy को अपनाकर किया जा सकता है। बहरहाल, पारिवारिक पाठ में इन्हें आवश्यक मानता हूँ:
• व्यावहारिक मापदंड तथा दुष्परिणामों से परिचय कराना: रूपये ५ की चोरी भी भला चोरी हुई! जब ऐसे मापदण्ड परिवार ने निर्धारित कर रखें हों तो बच्चे में इसके लक्षण बढ़ चढ़ कर ही मिलेंगे। परिवार को बताना होगा कि भिन्न भिन्न घटनाओं से किस किस तरह के लोग आहत हो सकते हैं और उनके दूरगामी परिणाम क्या होंगे। ध्यान रहे यह एक सतत प्रक्रिया है जो समय समय पर दुहराते रहना होगा।
• सोच में दूसरों के लिए जगह बने: बुढ़ापे में संतान अंधे की लकड़ी बने सभी के दिल में अरमान पलते हैं, पर क्या आपने उसे अपनी वस्तु को बाँटना सिखाया? क्या अपनी झोली खाली करके किसे के चेहरे पर मुस्कान खरीदना सिखाया? संचय इसलिए करते चलो की तुम तेजी से बढ़ते चलो, तो फिर एक मुकाम तो वह भी आएगा जब संचय की उस प्रक्रिया में आपके लिए भी जगह ना हो। आपने यही पाठ पढाया था न !
• तात्कालिक और दीर्घकालिक प्राप्ती के बीच द्वन्द्व: बच्चे के जेहन में यह हमेशा चलते रहता है। कभी लगता दीर्घकाल में न जाने क्या क्या हो तात्कालिक को ही प्राप्त करने में क्यों ना लगा जाये, सोचने के मानसिक दबाव से भी मुक्ति मिलेगी। इस मुद्दे पर खास तौर से समय समय पर बात करते रहने से बच्चे के सोचने के तरीका में आते हुये बदलाव से भी आप रु-ब -रु होते रहेंगे। आप स्वयं कल्पित परिस्थितियों को प्रस्तुत करें और बच्चे को विकल्प चुनने हेतु अलग अलग बिन्दुओं पर रोकते हुए इस मानसिक खेल को विनोदी भाव से खेलते रहें।

आप स्वयं कल्पित परिस्थितियों को प्रस्तुत करें और बच्चे को विकल्प चुनने को कहें। अलग अलग बिन्दुओं पर रोकें व निर्णय के प्रेरणाश्रोत को स्पष्ट करने को कहें। निर्णय का लाभ- हानि विश्लेषण करने को कहें, निर्णय के अलोकप्रिय होने पर अपना पक्ष रखने में आने वाले मुश्किलों का अनुमान लगाने को कहें, क्या लिया गया निर्णय रातों को चैन की नींद दे पायेगा – ऐसे पहलुओं पर सोचने को कहें। लिया गया निर्णय पूर्व के निर्णय से कैसे बेहतर है? क्या पहले की तुलना में अब सूक्ष्म पहलुओं तक पहुँच बढ़ी है? क्या समय के साथ हितधारकों तक पहुँचने का दायरा बढ़ता दिखता है? इस तरह सवालों के खेल – खेल में हर लर्नर कम से कम निर्णयहीनता के उस पार एक क्षमतावान व्यक्तिव की स्पष्ट झलक अवश्य पायेगा।

नवीन कुमार लर्निंग डिसेबिलिटी असेसमेंट टेस्ट के लेखक और व्यावहारिक मनोविज्ञान के जानकार हैं. उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है

By Editor

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