पटना के गांधी मैदान में रविवार को आयोजित दीन बचाओ देश बचाओ कांफ्रेंस को एक वर्ग भाजपा के खिलाफ मुसलमानों के एकजुटता के रूप में देख रहा है पर हकीकत यह है कि इस आयोजन ने सेक्युलर पार्टियों का होश उड़ा दिया है.
[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2016/06/irshadul.haque_.jpg” ]इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम[/author]
गांधी मैदान ने अपने इतिहास में कोई ऐसी रैली नहीं देखी जिसमें प्रमुख रूप से किसी एक समुदाय की भीड़ जुटी हो. यह रैली जेपी आंदोलन के समय जुटी भीड़ और लालू की किसी भी विशालतम रैलियों को टक्कर देने वाली साबित हुई. इस रैली का भाजपा के राजनीतिक स्वास्थ्य पर कोई असर शायद ही पड़े क्योंकि भाजपा को यह पता है कि न तो वह मुसलमानों के वोट के लिए बेचैन रहती है और न ही मुसलमान( कुछ अपवाद को छोड़ कर) उसे वोट करते हैं. यह भाजपा को और खुद मुसलमानों को पता है कि 2014 में उसने अकेले दम पर केंद्र में बहुमत हासिल कर लिया था. लिहाजा अगर कोई यह कहता है कि मुसलमानों की इस जबर्दश्त गोलबंदी से भाजपा के साम्प्रदायिक एजेंडे को बल मिलेगा, यह निर्मूल धारणा है.
वहीं इस ऐतिहासिक रैली का सीधा असर सेक्युलरिज्म के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टियों की सेहत पर जरूर पड़ गया है. उसके प्रमाण के लिए सबसे बड़ा सुबूत यह है कि इस रैली के भय से बिहार सरकार ने बिहार भर के विभिन्न जिलों और पटना के चप्पे-चप्पे में सरकारी हॉर्डिग उर्दू में पहले ही लगा कर यह प्रचारित करने लगी थी कि उसने अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए अब तक क्या काम किया और भविष्य में उसकी क्या योजना है. खुद गांधी मैदान , जहां रैली आयोजित की गयी थी, उसके बाहरी किनारों पर बड़ी बड़ी बीसियों हॉर्डिंग लगवाई थी. तमाम हार्डिंग हिंदी के अलावा उर्दू में थी. नीतीश सरकार की इस रैली के पहले से ही कितनी बेचैनी थी यह इसका सबसे बड़ा सुबूत है. वहीं दूसरी तरफ राजद जैसे दल ने तो इस रैली के समर्थन में रातों रात हार्डिंग लगवा दी. उसने भी गांधी मैदान के किनारे पर उर्दू में बड़ी हॉर्डिंग लगवा कर इस रैली का स्वागत किया. इसी तरह अनेक कांग्रेसी नेता तो बजाब्ता इस रैली की तैयारी के दिन से उसके समर्थन में दिन रात लगे थे.
दर असल दीन बचाओ देश बचाओ रैली सेक्युलरिज्म के नाम पर सियासत करने वाली पार्टियों द्वारा एक तरह से इस आयोजन के प्रति आत्मसमर्पण करने जैसा था. जहां तक मुझे जानकारी है, उसके मुताबिक तमाम सेक्युलर पार्टियों ने इस अवसर पर मंच पर आने के लिए एड़ी चोटी की मेहनत लगाई थी. लेकिन इमारत शरिया के अमीर ए शरियत मौलाना वली रहमानी ने किसी की नहीं सुनी. उन्होंने मुझसे बात चीत के दौरान कहा भी था कि वली रहमानी उस आदमी का नाम है जो किसी दबाव में कभी नहीं आता. उनका यह जवाब इस सवाल के बदले था जिसमें मैंने उनसे पूछा था कि तमाम सेक्युलर पार्टियों के आला नेता इमारत शरिया में हाजरी लगाने आ रहे हैं तो क्या वह दबाव में हैं. वली रहमानी ने इस आयोजन में एक भी पालिटिकल लीडर को मंच पर आने का न्योता नहीं दिया था.
यह स्पष्ट रहे कि इस आयोजन से पहले कई दिग्गज नेता, इमारत शरिया मुख्यालय पहुंच कर अमीर ए शरियत से मुलाकात कर चुके थे.
बजाहिर इस रैली के निशाने पर केंद्र की भाजपा सरकार और पीएम नरेंद्र मोदी जरूर थे. ऐसी रैलियों में जिसमें मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता, तीन तलाक बिल और संविधान पर खतरे की बात होगी तो भाजपा का निशाने पर आना स्वाभाविक है. लेकिन बिहार के लाखों मुसलमानों के इस जुटान ने यह साबित किया है कि इमारत शरिया का राजनीतिक रसूख इतना है कि सेक्युलर राजनीति करने वाली पार्टियां इसे इग्नोर करने का साहस नहीं जुटा सकतीं.
मौलाना वली रहमानी ने दीन का सियासी इस्तेमाल किया
गांधी मैदान में उमड़े जन सैलाब ने एक और बात स्पष्ट कर दी है. अमीर शरियत मौलाना वली रहमानी और महासचिव मौलाना अनीसुर रहमान कासमी ने अपना संगठन कौशल साबित कर दिया है. दीन( धर्म) के ढाल को सियासत की तलवार बनाने का जो प्रयोग उन्होंने किया उसी का परिणाम था कि इतनी भीड़ एकट्ठी हो सकी. बिहार के किसी मुस्लिम राजनीति नेतृत्व में यह क्षमता अब तक नहीं देखी गयी. इसकी वजह यह थी कि राजनीतिक नेता धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल इस तरह नहीं कर सकते. हालांकि अमीर ए शरियत की दीन और सियासत के इस घालमेल के फार्मुले की आलोचना करने की कई जाजय वजहें हो सकती हैं और हैं भी. ऐसी आलोचनायें सेक्युलर राजनीति के लिए जायज भी हैं. पर मुसलमानों में साम्प्रदायिकता, तीन तलाक बिल, भीड़ के हाथों मुसलमानों की हत्या जैसे अनेक इश्यु हैं जिन्हें ले कर इस समाज में भारी क्रोध है. इस क्रोध को संगठित आवाज देने की कोशिश इमारत शरिया ने की है. मौला रहमानी ने एक सवाल के जवाब में मुझे बताया था कि मैं विधान सभा का मेम्बर 1974 में ही बन गया था.