10मई को उत्तराखंड विधानसभा में होने वाला शक्ति परीक्षण हरीश रावत के लिए एक वरदान है. अब उनकी सरकार के पुनर्स्थापना की सारी दीवारें लगभग खत्म हो गयी हैं.
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम
केंद्र सरकार ने जिन हालात में वहां राष्ट्रपति शासन लगाया और जिस तरह से इस मामले में अदालतों ने फैसले दिये वह भाजपा के लिए आटर्किल 356 के उपयोग पर प्रश्न खड़ा करने वाला था. इधर इस मामले में अदालतों के तीन घटनाक्रम ने हरीश रावत की राह आसान कर दी.
सबसे पहले नैनीताल हाईकोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को न सिर्फ खारिज किया बल्कि केंद्र सरकार और यहां तक कि राष्ट्रपति की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़ा कर दिया. उसने फौरन राष्ट्रपति शासन हटा कर हरीश रावत को मुख्यमंत्री बना दिया. लेकिन बाद में जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया तो उसने इतना किया कि श्क्ति परीक्षण की तारीख तय कर दी उसने यह माना कि राष्ट्रपति शासन लागू करने से पहले शक्ति परीक्षण का मुनासिब स्थान विधानसभा ही है.
इन दोनों फैसले से मोदी सरकार को झटका लगा. अब अब हाई कोर्ट ने कांग्रेस के 9 बागी उम्मीदवारों को वोट देने के अधिकार से रोक दिया. उसके बाद फिर ये बागी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गये लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सुनवाई की तारीख 12 मई रखी. इससे यह स्पष्ट हो गया कि 10 तारीख के शक्ति परीक्षण में वे भाग नहीं ले पायेंग.
ऐसे में कांग्रेस की हरीश रावत की सरकार अब फिर से सत्ता संभाल लेगी. दर असल केंद्र सरकारों ने अकसर मौका मिलने पर अपने अधिकार का नाजायज इस्तेमाल किया है. इसी क्रम में मोदी सरकार ने हरीश रावत की सरकार को हटा कर वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया था. चुनी हुई सरकार बहुमत है या नहीं इसका फैसला सदन में होना चाहिए लेकिन मोदी सरकार ने हरीश रावत को इसका मौका तक नहीं दिया. दर असल यह फैसल लोकतंत्र के खिलाफ है. लेकिन अदालतों ने अपने फैसले में साबित कर दिया कि लोक तंत्र की हिफाजत करने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है.