अमित शाह, गिरिराज सिंह और सुशील मोदी जैसे लोग शहाबुद्दीन पर मुस्लिम प्रतीक के रूप में जब हमला करते हैं तो इसका उलटा असर यह पड़ता है कि मुसलमानों के एक खास सेक्शन में शहाबुद्दीन की हीरोइक छवि खुद ब खुद बन जाती है, जबिक वह मुस्लिम मुद्दों के कभी प्रतीक नहीं रहे.
इर्शादुल हक, एडिटर, नौकरशाही डॉट कॉम
2015 विधान सभा चुनावों के दौरान अमित शाह बिहार की रैलियों में शहाबद्दीन को एक आम अपराधी नेता के बजाये ऐसे प्रतीक के रूप में निशाना बना रहे थे जिसका अर्थ था- ‘मुस्लिम’ अपराधी. अमित शाह शहाबुद्दीन को मुसलमानों के प्रतिनिधि के रूप में पेश कर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना चाहते थे. इसी रास्ते पर सुशील मोदी चलते रहे. जबकि अगर आप शहाबुद्दीन के इतिहास को जानते हों तो आपको पता होगा कि शहाबुद्दीन ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में कभी मुस्लिम इश्यु को नहीं उठाया.
उन्होंने सीवान की सरहदों से कभी खुद को बाहर करके नहीं देखा. और यही कारण है कि मुसलमानों से ज्यादा समर्थक उनके हिंदू रहे. मुस्लिम वोट पाने की कभी उन्होंने अलग से कोशिश नहीं की. वजह साफ थी कि वह मुस्लिम होने के नाते यह बखूबी जानते रहे हैं कि मुसलमान उन्हें वोट करेंगे ही करेंगे.
शहाबुद्दीन जो हैं, शहाबुद्दीन जो नहीं हैं
लेकिन इन सब बातों के बर अक्स, अमित शाह, गिरिराज सिंह और सुशील मोदी जैसे लोग शहाबुद्दीन पर मुस्लिम प्रतीक के रूप में जब हमला करते हैं तो इसका उलटा असर यह पड़ता है कि मुसलमानों के एक खास सेक्शन में शहाबुद्दीन की हीरोइक छवि खुद ब खुद बन जाती है. ऐसा सोचते हुए ये कुछ मुसलमान शहाबुद्दीन को अमित शाह, सुशील मोदी व गिरिराज सिंह सरीखे लोगों के विरोध का प्रतीक शहाबुद्दीन में खोज निकालते हैं.
हालांकि जैसा ऊपर लिखा गया कि शहाबुद्दीन ने मुस्लिम फोल्ड की राजनीति कभी नहीं की. दूसरी तरफ मीडिया का एक वर्ग, शहाबुद्दीन की जिन शब्दों में आलोचना कर रहा है, बल्कि यूं कहें कि उनके खिलाफ पिल पड़ा है, ऐसे में वह अपनी टीआरपी के साथ-साथ शहाबुद्दीन की टीआरपी भी बढ़ा रहा है. ऐसे में एक नेता को और क्या चाहिए कि उसकी टीआरपी बढ़ती रहे, बनी रहे.
मीडिया और मोदी
यह मीडिया ही है जिसने शहाबुद्दीन को, ग्यारह साल जेल में रहने के बावजूद, उनकी टीआरपी बनाये रखी. शहाबुद्दीन के बारे में अपराध की दुनिया का इंसान वाली छवि के अलावा और कुछ मीडिया ने दिखाया ही नहीं, जबकि उन्हें करीब से जानने वाले जानते हैं कि वह एक मंझे हुए रणनीतिकार हैं और विपरीत परिस्थितियों को अपने मुताबिक ढालने का हुनर जानते हैं. तभी तो 2009 से ले कर अब तक तीन चुनावों में उनकी पत्नी हिना शहाब हारती रहीं लेकिन शहाबुद्दीन का राजनीतिक रसूख अपनी पार्टी में कभी कम नहीं हुआ.
क्या छोटे, क्या बड़े तमाम नेता शहाबुद्दीन को कभी इग्नोर नहीं कर सके. इसकी एक मिसाल वह वायरल वीडियो है जिसमें एक मंत्री को जेल में उनके साथ देखा गया था. अब जबकि शहाबुद्दीन जेल से बाहर आ चुके हैं, उनका जलवा और बढ़ेगा. वह अपने स्तर पर सीवान में अपने बिखरे संगठन को सजोंने में लगेंगे. और जिस तरह का उनका प्रभाव वहां है, कोई दो राय नहीं कि इसमें वह सफल नहीं होंगे.
अपराध और राजनीति
दुनिया जानती है कि शहाबुद्दीन आपराधिक छवि के नेता हैं. उन पर एक दो नहीं 49 केसेज हैं. हत्या के इल्जाम में उन्हें कारावास की सजा भी हो चुकी है. लेकिन भारतीय जनमानस को इससे बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. शहाबुद्दीन के अलावा पप्पू यादव से ले कर बिहार, यूपी हो या दक्षिण के राज्य हर जगह इसकी मिसाल मौजूद है. हाल ही में तमिल नाडु में हुए चुनाव नतीजे भी इसके प्रमाण हैं जहां भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी और बरी की जा चुकी जय ललिता बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बन गयी है.
उधर दूसरी तरफ शहाबुद्दीन बिहार के एक कद्दावर मुस्लिम फेस के रूप में उभरेंगे. और इसके लिए उन्हें कुछ करने के बजाये यह काम मीडिया का एक वर्ग और भाजपा जैसी विरोधी पार्टियां खुद कर देंगी.