मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को अपने ही प्रशासनिक तंत्र से भरोसा उठ गया है। सरकारी कर्मचारियों की कार्यशैली पर उन्हें विश्वास नहीं रह गया है। रविवार को पटना में एक एनजीओ द्वारा आयोजित विचार गोष्ठी ने उन्होंने कहा कि हर सरकारी क्षेत्र की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। गोष्ठी का विषय था- पीपीपी मोड की शिक्षा और विकास की भूमिका। उन्होंने परिवहन विभाग की बसों का भी मजाक उड़ाया और कहा कि एक साल में ही बस के पार्ट-पूर्जा व टायर बिक जाते हैं।
बिहार ब्यूरो
मंच पर मांझी पूर्णतया विपक्ष की भूमिका में आए गए थे। पहले उन्होंने शिक्षा विभाग को निशाने पर लिया और कहा कि शिक्षक पढ़ाई को लेकर गंभीर नहीं रहते हैं। बराबर सरकार के खिलाफ आंदोलन ही करते रहते हैं। बच्चों को संस्कार देने के बजाए अपसंस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। उन्होंने यहां तक कहा कि निजी स्कूलों में कम वेतन में भी शिक्षक गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देते हैं, जबकि सरकारी स्कूलों में मोटी तनख्वाह लेकर भी पढ़ाई नहीं करते हैं। उन्होंने लगे हाथ परिवहन विभाग को निशाने पर लिया और कहा कि निगम की बसों के पार्ट्स-पूर्जे व टायर एक साल में ही बिक जाते हैं, जबकि निजी बस चालकों की गाडि़यों में हर साल बढ़ोत्तरी ही होती जाती है।
मुख्यमंत्री ने कहा कि यही सच्चाई है। इसे स्वीकार करने में हमें कोई परहेज नहीं है। उन्होंने शिक्षा की वैकल्पित व्यवस्था की तलाश पर जोर दिया। लेकिन सवाल यह है कि पूर्ववर्ती नीतीश कुमार की सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क आदि क्षेत्रों में विकास का ढिंढोरा पीट रही थी। नीतीश कुमार इन्हीं दावों के आधार पर सुशासन की बात करते थे। शिक्षा में गुणवत्ता के लिए शिक्षकों के नियोजन की बात करते थे। पर, ‘मांझी की बगावत’ यही कहती है कि विकास का दावा, गुणवत्ता का ढिंढोरा और सुशासन का नारा सब निराधार था। इन नाकामियों की भागीदार जदयू के साथ भाजपा भी थी। मांझी की बगावत जदयू के आंतरिक कलह का परिणाम भी हो सकता है। या फिर एनजीओ की मार्केटिंग भी। सच जो भी, लेकिन इतना तय है कि सुशासन के दावों पर प्रशन चिह्न मांझी ने लगा ही दिया है।