एनडीए की प्रमुख घटक दल भाजपा ने अपने उम्मीदवारों की पहली सूची जारी कर दी है। इसमें 43 सीटों के उम्मीदवारों के नाम शामिल हैं। इसमें सबसे मजेदार बात है कि अपनी पहली सूची की सीटों के चयन में भाजपा ने सहयोगी दलों के साथ कोई राय-मशविरा भी नहीं की। जिस सीट पर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की अंगुली गयी, वह सीट भापजा की। खाता न बही, जो शाह जी कहें, वही सही।
वीरेंद्र यादव
भाजपा ने जिन 43 सीटों पर अपने उम्मीदवारों को उतारा है, उनमें से 31 सीट पहले से ही भाजपा के पास थीं। 1 सीट जदयू विधायक के भाजपा में शामिल होने की वजह से भाजपा की ही मान लेनी चाहिए। 11 नयी सीटों पर भाजपा ने अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा की है। इन्हीं 11 सीटों को लेकर सहयोगियों को आपत्ति भी है। उनकी आपत्ति सीटों के चयन से ज्यादा प्रक्रिया को लेकर है। सहयोगी चाहते हैं कि पहले सीटों के नामों का बंटवारा हो जाए, उसके बाद उम्मीदवारों के नामों की घोषणा हो।
भाजपा का सर्वे
प्राप्त जानकारी के अनुसार, भाजपा के आंतरिक सर्वे में उनकी अपनी करीब 90 सीटों में 20 से 25 सीटें सेफ नहीं हैं। उन सीटों पर भाजपा ने उम्मीदवार बदलने की शुरुआत भी कर दी है। भाजपा के सर्वे में सीटों को तीन श्रेणी में बांटा गया था। पहली मजबूत सीट थी, दूसरी मध्यम आधार वाली सीट थी और तीसरी कमजोर आधार वाली सीटें थीं। भाजपा ने करीब 150 सीटों को मजबूत आधार वाली श्रेणी में रखा था और इन सीटों पर वह अपना उम्मीदवार ही देना चाहती है। इसी हड़बड़ी में उसने 43 सीटों के नामों की घोषणा कर दी। दूसरी श्रेणी की वैसी सीटें हैं, जिसे भाजपा अपने सामाजिक आधार के अनुकूल मानती है, लेकिन उन सीटों पर ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता है। ऐसी सीटों की संख्या 45 से 50 है। तीसरी श्रेणी की वे सीटें है, जिसे भाजपा कमजोर मानती है और उस पर कोई दाव नहीं लगाना चाहती है। इनकी संख्या भी 40 से 45 के आसपास है। भाजपा मजबूत आधार वाली 150 सीटों को सहयोगियों के लिए नहीं छोड़ना चाहती है।
सहयोगियों की कमजोरी
भाजपा के सहयोगी दलों के पास कोई संगठन नहीं है। इन दलों के पास नेता हैं और कार्यकर्ता (जातीय आधार) हैं। संगठन के नाम पर लोजपा रामविलास पासवान के बेटा और भाई से आगे नहीं बढ़ पाती है। महादलित नेता व हम के सुप्रीमो जीतनराम मांझी के पास दलित के नाम पर उनके पास बेटा और दामाद के आगे कोई नहीं है। जबकि रालोसपा का कूनबा कुशवाहा व भूमिहार से आगे नहीं बढ़ पाया है। वैसी स्थिति में भाजपा की मनमानी और ‘साहगिरी’ के बीच पिसने के अलावा सहयोगियों के पास कोई विकल्प भी नहीं है।