‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना की शुरूआत करते हुए नरेंद्र मोदी ने भारतीय मानसिकता को बदलने की बात तो कह दी लेकिन वह अपने संतों के उस फरमान पर चुप है जो महिलाओं से 4 से 10 बच्चे पैदा करने को कह रहे हैं.
शिक्षा के बाजारीकरण के युग में जहां एक बच्चे को पढ़ाना मुश्किल है, वहां कमाऊ व्यक्ति भी दस बच्चों की शिक्षा के बारे में सोच भी नहीं सकता। देखा जाये तो अंतरराष्ट्रीय मंच पर जहां आज महिला के स्वाभिमान और उसकी निजी आज़ादी का प्रश्न लगातार सवालों के घेरे में है, वहां पांच बच्चे पैदा करने का प्रवचन विश्व मंच पर हमारा मज़ाक बनाने के लिए कापफी है।
भारत में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार ‘‘मां बनने के दौरान हर दस मिनट में एक महिला की मौत हो जाती है’. 2010 में 57 हजार महिलाओं की मृत्यु मां बनने के दौरान हुई थी। 2015 तक इस आंकड़े को कम करने की मुहिम जारी है, लेकिन बढ़ते आंकड़े बताते हैं कि मां बनना अभी भी एक नये जीवन से हो कर गुजरने जैसा है। ‘यूनीसेपफ स्टेट आफ द वल्र्डस चिल्ड्रेन’ की रिपोर्ट कहती है कि प्रसव से जुड़ी परेशानियों के कारण औसतन हर 7 मिनट पर एक महिला की मौत हो जाती है।’ अन्य देशों की तुलना में यह आंकड़े बहुत ज़्यादा हैं और स्वास्थ्य संबंधी सवालों को भी जन्म देते हैं।
निजी आजादी पर हमला
दूर्भाग्य से अभी भी अपने देश के कई राज्यों में भ्रूण हत्या जैसी समस्याओं से भी जूझ रहे हैं। दुखद यह है कि यह हत्याएं पढ़े लिखे और आर्थिक स्तर पर मजबूत घरानों में ज़्यादा हो रही है। 5 बच्चे पैदा करने का फरमान और गर्भ में हत्या जैसी घटनाएं जहां मर्द सत्तात्मक समाज के लिए क्लंक है, वहीं महिला की निजी आज़ादी पर हमला भी।
सदियों से दासता की बेड़ियों में जकड़ी औरत के लिए यह धर्मिक आख्यान गंभीर चुनौती है. वैसे ही 40 प्रतिशत शहरी महिलाओं में से पढ़ी लिखी महिलाओं का कुछ प्रतिशत अब अपनी आजादी का प्रश्न भी उठानी लगी हैं। इस आज़ादी में जागरुक महिलाओं को कई सामाजिक संगठन भी सहयोग दे रहे हैं। लेकिन यह माना जाये कि फिल्म, स्पोर्टस, दफ्तर में काम करने वाली और अन्य कामकाजी महिलाओं का यह प्रतिशत अभी इतना कम है कि आये दिन इनकी निजी आज़ादी पर मर्द का हथौड़ा चल जाता है। आश्चर्य यह है कि एक सभ्य दुनिया में स्त्री अभी भी अपने जीवन, करियर, आज़ादी, यहां तक बच्चे पैदा करने के लिए भी मर्द के अधीन है। इसलिए ‘सिमोन द बुआर’ के तीखे शब्द आज भी खून के आंसू रुलाते हैं कि ‘औरत जन्म कहां लेती है, वह तो बनाई जाती है।’ और यह उसका निर्माता शताब्दियों से पुरूष रहा है, जो कुम्हार के चाक की तरह अपनी बनाई हुई आस्था, अपने निर्मित किये संस्कारों के चबूतरे पर उसकी बलि देता आया है।
टूटती हैं भाषा की सीमायें
2007 में संघ प्रचारक सुनील जोशी की हत्या की जांच कर रही एजेंसी ‘एन.आई.ए.’ ने खुलासा किया कि उनका एक महिला के प्रति कथित यौन आकर्षण भी हत्या की एक वजह हो सकती है। धर्मगुरुओं से लेकर साध्वी निरंजन ज्योति तक भाषा की सीमाएं हर सतह पर टूटती रही हैं। महिलाओं को सशक्तीकरण प्रदान करने की जगह धर्मिक आख्यानों में इन्हें कमजोर बनाने पर ही बल दिया गया। यहां तक कि साधु-संतों के कुछ आश्रम भी बलात्कार का केन्द्र पाये गये। एक नहीं, कई मिसालें पिछले 5 वर्षों में खुल कर सामने आई हैं।
महिला सशक्तीकरण और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की बातें करने वाले मोदीजी अगर महिलाओं पर होने वाली घृणित बयानों से अंजान व चुप हैं, तो यह मान कर चलना चाहिये कि साक्षी महाराज जैसे लोगों के बयान को इन का मौन समर्थन प्राप्त है। यदि ऐसा है तो यह चिंताजनक।
ज्वलंत प्रश्न यह है कि क्या बच्चा पैदा करने का मर्दों मर्दों का फरमान दर असल महिला आज़ादी से जुड़ा प्रश्न है, और इसके लिए अभी से बाहरी दबाव बढ़ा कर इन संतों या मर्दविदियों की ज़ुबानें बन्द करने की ज़रूरत है।
तबस्सुम फ़ातिमा टेलिविजन प्रोड्युसर और फ्रीलांस राइटर हैं. उर्दू- हिंदी साहित्य में दखल रखने वाली तबस्सुम महिला अधिकारों के प्रति काफी संवेदनशील हैं. दिल्ली में रहती हैं.