तीखे और तिलमिला देने वाले बयानों से भरा 2015 के बिहार विधान सभा का यह चुनाव कबड्डी के खेल की मिसाल से समझा जा सकता है.
इर्शादुल हक, सम्पादक, नौकरशाही डॉट इन
कबड्डी में एक पक्षा का खिलाड़ी जब कबड्डी-कबड्डी की आवाज लगाता हुआ दूसरे पक्ष की सीमा में प्रवेश करता है तो विरोधी पक्ष उसे दबोच कर पटखनी दने के फिराक में रहता है. पटखनी के बाद वह, उसे उस वक्त तक दबोचे रहता है जब तक उसकी सांस न टूट जाये. फिर दूसरे ही पल पहला पक्ष भी यही दुहराने के फिराक में रहता है.
ऐसे हालात बिहार में चुनाव के काफी पहले बन गये थे, जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार पर डीएनए संबंधी टिप्पणी की थी. मोदी के इस बयान को नीतीश ने बड़ी चालाकी से दबोच लिया था और इससे जितना राजनीतिक लाभ संभव था, लेने की कोशिश की थी. चुनाव नतीजों को देखें तो यह लगता है कि डीएनए के मुद्दे को भुनाने में नीतीश सफल भी रहे हैं. उन्होंने इसे बिहारी स्मिता से बखूबी जोड़ा. लेकिन जैसे-जैसे चुनाव करीब आता गया, एनडीए और महागठबंधन के बीच की रंजिशों की तीव्रता बढ़ती ही चली गयी.
लालू ने लड़ाई अपने अखाड़े में खीच ली
लालू प्रसाद तो यही चाहते थे कि चुनावी युद्ध की गरमाहट सीधा मतदाताओं तक पहुंचे, सो उन्होंने इस चुनाव को मंडल-बनाम कमंडल कहके भाजपा गठबंधन को घेरा. बदले में भाजपा नेताओं ने राजद को जंगल राज का डर तक कहा. और फिर इस बयान को लालू प्रसाद ने कामयाबी के साथ दबोच लिया. लालू शुरू से ऐसे संवेदनशील बयानों के प्रति काफी चौकस रहे. वह तो चाह ही रहे थे कि भाजपा की बयानबाजियों को अपने अखाडे में दबोचा जाये. पूरे चुनावी पीरियड पर गौर करिये तो साफ हो जाता है कि भाजपा बार-बार लालू के अखाड़े में पछाड़ी जाती रही.
पूरा राजनीतिक माहौल अचनाक उस वक्त रंजिशों की पराकाष्ठा पर, तब पहुंच गया जब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जाने-अनजाने में आरक्षण के समीक्षा संबंधी बयान दिया. पूरी तत्परता के साथ लालू ने भागवत के बयान को दलितों पिछड़ों के आरक्षण की हकमारी के षड्यंत्र के रूप में लेते हुए चुनौती दी कि ‘मां का दूध’ पिया है तो आरक्षण समाप्त करके देखो. लालू का यह जवाब जंगल की आग की तरह गांवों की पगडंडियों तक पहुंच गया. तभी लगने लगा था कि भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव में कबड्डी के मैदान में दबोचे गये खिलाड़ियों की तरह गठबंधन के अखाड़े में दबोची जा चुकी है.
जब मोदी ने लालू-नीतीश को घेरा
इससे पहले बिहार को विशेष, पैकेज देने के मुद्दे को भी नीतीश ने घेर लिया था. और यह जताने की कामयाब कोशिश की थी कि नरेंद्र मोदी बिहार की बोली लगा रहे हैं. निश्चित तौर पर नरेंद्र मोदी की दो दर्जन से ज्यादा रैलियों ने भीड़ इक्टठी करने में कामयाबी हासिल की लेकिन उनकी कई बातें भीड़ को भी शायद नागवार लगीं. इनमें उनका एक बयान यह था कि लालू-नीतीश की जोड़ी ने पिछड़ों, दलितों के आरक्षण कोटे में से पांच प्रतिशत कोटा दूसरे संप्रदाय( मुसलमान) के लोगों को देने की साजिश कर रही है. देश के प्रधान मंत्री ने यहां तक कह डाला कि वह इस आरक्षण की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगाने को तैयार हैं.
भले ही इस बयान का नाकारात्मक असर चुनाव नतीजे पर पड़ा हो लेकिन चुनावी कबड्डी के अखाड़े में यह पहला अवसर था जब लालू और नतीश को मोदी ने अपने बयान से दबोच सा लिया था. यकीनन ऐसा लगने लगा था कि लालू-और नीतीश इस बयान से घिर चुके हैं.
चुनाव परिणाम कभी भी किसी एक फैक्टर से तय नहीं होते, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. राजनीतिक गणित के लिहाज से लालू-नीतीश का मिल जाना ही भाजपा के लिए कठिन चुनौती थी. लेकिन बयानबाजियों ने जन-जन को प्रभावित जरूर किया. इन बयानबाजियों में गोमांस का मुद्दा, पाकिस्तान में पटाखे फूटने संबंधी अमित शाह का बयान या लालू प्रसाद द्वारा नरेंद्र मोदी को नरपिशाच तक कहे जाने का बयान इस फेहरिस्त को लम्बा बनाता गया. ऐसे बयानों ने चुनाव आयोग को भी परेशानी में डाल गया. लेकिन चुनाव परिणाम यह बताता है कि बिहार के वोटर लालू के तीखे आक्रमण के साथ रहे तो नीतीश कुमार के संय्यम भरे भाषणों को भी गले लगाया और उसी आधार पर फैसला सुनाया. जबकि वोटरों ने अमित शाह, गिरिराज सिंह, सुशील मोदी के पाकिस्तान, आतंकवाद, गोमांस जैसे मुद्दे की हवा निकाल दी. इतना ही नहीं पाकिस्तानी अखबार में नीतीश के विज्ञापन छपने के तथ्यहीन दावे से भी भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा.
लेकिन यह भी सही साबित हुआ कि एक तरफ बिहार के वोटरों ने साम्प्रदायिक विभाजन वाले बयानों को रिजेक्ट किया तो दूसरी तरफ अगड़े बनाम पिछड़ा के टकराव वाले लालू के बयान के साथ एकजुट हो गये. चुनाव नतीजे की एक तथ्यात्म सच्चाई यही भी है. लेकिन उम्मीद की जानी चाहिये कि जिस तरह वोटरों ने साम्प्रदायिक वैमन्स्य से भरे बयानों को ठुकराया उसी तरह जातीये वैमनस्य को भी अस्वीकार किया जाना चाहिए था.