कश्मीर में जो कुछ हो रहा है, उसके केंद्र में भाजपा है। भाजपा के लिए अब सिद्धांत नहीं, अवसरवाद ही सत्ता हासिल करने का साधन बन चुका है।
मोदीजी जितना दौरा कश्मीर का कर चुके थे, देश के किसी प्रधानमंत्री ने नहीं किया। धारा 370 हटाने की बात पर बंदूक उठाने वाली डॉ हिना भट्ट, अलगाववादी नेता सज्जाद लोन भाजपा के मित्र होंगे, ऐसा सोच कम से कम श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे नेता का नहीं रहा था।
पुष्परंजन
भाजपा का नारा था, ‘जम्मू-कश्मीर से बाप-बेटा और बाप-बेटी की राजनीति को साफ करो।’ पिता, मुफ्ती मोहम्मद सईद विधानसभा चुनाव जीत गए, और उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती अनंतनाग से दूसरी बार लोकसभा में हैं। मजे की बात है कि यही भाजपा अब साझा न्यूनतम कार्यक्रम के बहाने, पीडीपी के साथ सत्ता चलाने को बेचैन है। अब मुफ्ती मोहम्मद सईद के ऊपर है कि कांग्रेस का साथ लें या भाजपा का। भाजपा के साथ जाने पर केंद्र में मंत्रिपद मिलना भी तो ‘साझा न्यूनतम कार्यक्रम’ का हिस्सा होगा। अवसरवाद की राजनीति जो न कराए!
इससे कौन मना करेगा कि कश्मीर और लद्दाख में भाजपा को बढ़त नहीं हासिल हुई, और इस सूबे की राजनीति में भाजपा अब अछूत नहीं है? अब तक जितने भी विधानसभा चुनाव हुए, उनमें से अकेले जम्मू-कश्मीर के चुनाव पर दुनिया भर की निगाहें टिकी हुई थीं। मगर, दूसरे नंबर पर आई भाजपा के मित्र मानेंगे नहीं कि मिशन-44 की हवा कश्मीर में निकल गई, और मोदी मैजिक फेल हो गया। अगर मोदी लहर थी, तो जम्मू में कांग्रेस को आठ सीटें नहीं मिलनी चाहिए थी। सच तो यही है कि कांग्रेस ने भाजपा के अश्वमेधी घोड़े को जम्मू में रोक दिया। क्या जम्मू में भाजपा का जनाधार, कश्मीर घाटी में अलगाववादियों से हाथ मिलाने के कारण खिसका है?
सब लोग मान रहे हैं कि सत्तासी सदस्यीय कश्मीर विधानसभा के लिए साठ फीसद से अधिक मतदान होना पाकपरस्त अलगाववादियों के मुंह पर तमाचा है। लेकिन इसके लिए अमित शाह, मोदीजी, राम माधव को नहीं, कश्मीरी मतदाताओं को सलाम करना चाहिए, जिन्होंने किसी भी धमकी की परवाह न करते हुए इवीएम मशीनों के बटन दबाए। यह संयोग है कि इस समय पाकिस्तान अपने घरेलू लफड़ों और आतंक की गिरफ्त में है। लेकिन इससे यह भ्रम नहीं पाल लेना चाहिए कि घाटी में गोलियां चलनी बंद हो जाएंगी, और मसला-ए-कश्मीर पाकिस्तान के एजेंडे से गायब हो जाएगा।
पाकिस्तान को इतनी राहत अवश्य है कि जम्मू-कश्मीर में भाजपा की सरकार नहीं बनी, वरना उसकी मुश्किलें और बढ़ सकती थीं। चुनाव परिणाम आ चुका, और अब संभव है कि ‘एजेंडा 370’ की वापसी हो। कश्मीर में मतदाताओं को मोहने के लिए टोटके खूब हुए। क्या मोदीजी हर साल दिवाली मनाने कश्मीर जाएंगे? शायद, कश्मीर में मोदीजी अगली दिवाली 2020 में मनाने जाएं। वे आंध्र में बाढ़ से तबाह इक्कीस लाख परिवारों के साथ दिवाली मनाने नहीं गए। दिवाली आंध्र में भी बड़ी संख्या में लोग मनाते हैं। अब, जब मई 2014 में चुनाव संपन्न हो गया, तो मोदीजी भला दिवाली मनाने आंध्र क्यों जाते?
कश्मीर के मतदाताओं ने बहुत सोच-समझ कर वोट दिया है। पीडीपी को नंबर एक बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। 2008 के चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस को 28 सीटें, पीडीपी को 21, कांग्रेस को 17, भाजपा को 11, जम्मू-कश्मीर पैंथर्स पार्टी को तीन, माकपा को एक, पॉपुलर डेमोक्रेटिक फ्रंट को एक, जेकेडीपीएन को एक, और चार निर्दलीयों को विधानसभा की सीटें हासिल हुई थीं। 1996 से नेशनल कॉन्फ्रेंस जम्मू-कश्मीर में सत्ता का स्वाद चखती आ रही है।
कांग्रेस 2002 से ‘किंग मेकर’ की भूमिका में रही थी, लेकिन चुनाव से पहले उसका नेशनल कॉन्फ्रेंस से अलग होना भी दोनों के नुकसान का सबब बना है। झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव में एक समानता यह दिखती है कि भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के लिए किसी ऐसे चेहरे को सामने नहीं रखा, जो अपने सूबे में दमदार और केंद्र पर भारी पड़ता हो। झारखंड में आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री की चर्चा परिणाम के साथ-साथ चलने लगी। अर्जुन मुंडा का दिल्ली में आला नेताओं से मिलना यह दर्शाता है कि वे वनवासी कार्ड के बूते चौथी बार मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं, हालांकि वे चुनाव हार गए हैं। लेकिन आलाकमान की सूझ का कोई भरोसा नहीं कि झारखंड का ‘मनोहरलाल खट्टर’ कोई और बन जाए।
कश्मीर में मोदी लहर का भ्रम टूटने के बावजूद लगता नहीं कि आने वाले विधानसभा चुनावों में ‘मोदी नाम केवलम’ के अश्वमेध घोड़े नहीं दौड़ेंगे। ‘मुख्यमंत्री वही, जो मोदी मन भाए’ का गान फूटेगा, और केंद्रीय संसदीय बोर्ड में किसी की हिम्मत नहीं होगी, जो उसे चुनौती दे दे। यह बिना अध्यादेश के संविधान के अनुच्छेदों को बदल देने का भाजपाई प्रयास है। राजनीति के विद्यार्थी के रूप में हम पढ़ते आ रहे थे कि राज्य विधानमंडलों में विधायक दल अपना नेता स्वयं चुनेगा। दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, केरल, पुदुच्चेरी, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के भगवा ध्वजवाहकों को अब इसके लिए मानसिक रूप से तैयार हो जाना चाहिए। इसका नफा-नुकसान यही होगा कि बाकी पार्टियां भी इसी राह पर चल पड़ेंगी, और भारतीय राजनीति से क्षत्रप दुर्लभ होते जाएंगे!
साभार जनसत्ता
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