नीतीश कुमार मौजूदा राजनीति के सर्वाधिक जटिल राजनेताओं में से हैं. उनकी रणनीति को समझना आसान नहीं रहा है.और यही नीतीश के लिए जरूरी भी है और उनकी मजबूरी भी.
IRSHADUL HAQUE, Editor, naukarshahi.com
भाजपा से अलग हो कर, और राजद-कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने के बाद संघमुक्त भारत का नारा देने वाले नीतीश ने आखिर क्यों नोटबंदी से उपजे देशव्यापी कोहराम के बावजूद मोदी सरकार के पक्ष में कूद पड़े हैं? खास कर ऐसे समय में जब देश के विपक्षी दलों के बड़े नेता संसद से राष्ट्रपति भवन तक कूच कर रहे हैं.
नोटबंदी से करोड़ों लोगों में बढ़ी नारजगी का लाभ ले कर राष्ट्रीय फलक पर छा जाने की कोशिशें शुरू हो गयी हैं. क्या ममता, क्या केजरीवा, बसपा, सपा, राजद और यहां तक कि भाजपा गठबंधन में शामिल शिवसेना सब मैदान में हैं. जबकि नीतीश अकेले ऐसे नेता हैं जो घुमा-फिरा कर बात कर रहे हैं और ले दे कर नोटबंदी को सही फैसला कह कर चुप हो लेते हैं. जबकि वह नोटबंदी से उत्पन्न समस्याओं पर मोदी सरकार की चुटकी जरूर ले रहे हैं.
सच्चाई यह भी है कि जद यू के अन्य टाप लीडर शरद यादव, राष्ट्रीय प्रवक्ता केसी त्यागी से ले कर मझोले नेता भी, नीतीश की रणनीति पर पशोपेश में हैं. ये नेता सार्वजनिक मंचों पर खुल के अपना पक्ष नहीं रख पा रहे हैं. उधर जब भी नीतीश कोई ऐसा बयान देते हैं जिसमें केंद्र की नीतियों का समर्थन किया जाता हो तो मीडिया के एक हिस्से का चेहरा खिल कर गुलाबी हो जाता है. और फिर कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाये जाने लगते हैं और यहां तक बताया जाने लगता है कि भाजपा के साथ कभी भी नीतीश आ सकते हैं.
नीतीश के लिए जरूरी भी, मजबूरी भी
याद कीजिए भाजपा गठबंधन के साथ लगभग दस साल तक मुख्यमंत्री रहते हुए नीतीश एक सुपर सीएम रहे हैं. भाजपा के किसी नेता की इतनी मजाल कभी नहीं रही कि वे, नीतीश के सामने खड़े हो सकते थे. यहां तक कि उनके सीएम रहते, भाजपा हाईकमान को भी इतना साहस कभी नहीं हुआ कि वे नीतीश पर किसी तरह का अंकुश थोप सके. उलटे, नीतीश कुमार, इन्हीं नरेंद्र मोदी को बिहार की सरजमीन पर कभी चुनाव प्रचार के लिए प्रवेश की इजाजत तक नहीं देते थे और भाजपा जब तक उनके साथ रही, मोदी किसी सार्वजनिक सभा के लिए बिहार नहीं आ सके. ऐसा एकक्षत्र फैसला करने के आदी हो चुके नीतीश आज लालू प्रसाद के साथ हैं. उन लालू प्रसाद के साथ जिनका दल, विधान सभा में, नीतीश कुमार की पार्टी से बड़ा है. नीतीश एक छोटे दल के नेता हैं, फिर भी मुख्यमंत्री हैं.
नीतीश की रानीति
ऐसे में नीतीश कुमार स्वतंत्र और बेबाक फैसले लेने में स्वभाविक तौर पर कठिनाइयों से जूझते हैं. दूसरी तरफ लालू प्रसाद गाहे-बगाहे यह घोषित करते रहते हैं कि सरकार में उनकी पार्टी बड़ी है इसलिए राज्य की जनता के समक्ष उनकी पार्टी कि जवाबदेही भी बड़ी है. लालू जब ऐसे बयान दे रहे होते हैं तो इशारो में नीतीश को यह अभास दिलाने की कोशिश कर रहे होते हैं कि उनका सभी फैसला नहीं चलने वाला. दूसरी तरफ नीतीश कुमार एक मंझे हुए सियासतदां हैं. जिन्हें इस सच्चाई का पूरा एहसास है कि लालू के बिना उनकी सरकार की कोई बिसात नहीं. इतना ही नहीं, नीतीश का आधार वोट भी इतना नहीं कि वह अकेल दम पर सरकार बना और चला सकें. पिछले ग्यारह वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह बिना किसी बाहरी सहारे के सरकार बना सके हों. ऐसे में राजद को नियंत्रित और उसे काबू में रखने के लिए, बीच-बीच में केंद्र सरकार के समर्थन में दिया जाने वाला नीतीश का बयान जरूरी भी है और मजबूरी भी.
दूसरी बात- नीतीश जब नोटबंदी की समस्या पर देश की नाराज होती जनता की मंशा को पहचानने के बावजूद, मोदी सरकार का समर्थन कर रहे होते हैं तो उन्हें यह भी पता होता है कि इससे उनके लिए राष्ट्रीय फलक की राजनीति में छा जाने की कोशिशों को झटका लगेगा. पर दूसरी तरफ राजद के साथ सह-मात के खेल के लिए उनके लिए यह जरूरी भी है.
इन तमाम बातों के अलावा यह नहीं भूलना चाहिए कि नीतीश कुमार, भाजपा के मोदी युग से इतनी दूर जा चुके हैं कि वह अगर वहां वापसी की उम्मीद करें तो यह उनके सियासी जीवन के लिए सबसे बड़ी गलतियों में से एक गलती होगी, जिसे नीतीश शायद ही दोहराना चाहें.