लूप्त होती पहाड़िया जनजाति में जीने की आशा और उनमें शिक्षा का अलख तब इन युवा आईएएस ने कैसे जगाया, खुद विजय प्रकाश ने हमारे सम्पादक इर्शादुल हक को बतायी यह अनोखी कहानी.
यह 1990 की बात है. मैं साहबगंज में डिस्ट्रिक्ट कोलेक्टर था. वहां पहाड़िया जनजाति के लोग रहते हैं. उस समय उनमें साक्षरता दर महज 2 प्रतिशत थी. उनकी जनसंख्या घट रही थी. उस समय इस विषय पर कई तरह से सोचा जा रहा था. मैंने महसूस किया कि इस जनजाति के जीने की उम्मीदें समाप्त हो चुकी हैं. जहां जीने की उम्मीद न हो वहां अस्तित्व का संकट स्वाभाविक होता है.
मैंने महसूस किया कि धन, कृति और पीढियों को आगे बढ़ाने की आशा ही जीवन कों संबल देते हैं. पर इस जनजातियों में ये चीजें समाप्त होती जा रही थीं. इसी लिए उनकी जनसंख्या निरंतर कम होती जा रही थी.
जीवन की आशा
मैं काफी अध्ययन के बाद इस नतीजे पर पहुंचा कि इनमें जीने की उम्मीद जगाने की जरूरत है. क्योंकि जहां उम्मीद है वहीं जीवन है. मैंने तय किया कि उनके जीवन की पोजिटिव चींजों को खोजा जाये और उसे उनके लिए प्रेरणा के स्रोत के रूप में विकसित किया जाये क्योंकि इंस्पिरेशन ही जीने की आशा जगाता है. मैंने अपने अध्ययन के दौरान पाया कि उनके अंदर लोकनृत्य के अद्भुत गुण मौजूद हैं. पहाड़िया लोग अपने पारम्परिक नृत्य में अपनी मिशाल आप होते हैं.सो हमने तय किया कि हम पहाड़िया नृत्य महोत्सव का आयोजन करेंगे. इसके लिए जिले के हर गांव में पहाड़िया समुदाय से सम्पर्क साधा. इस प्रकार जिले के 72 गांवों के लोग अपनी मंडली के साथ इस महोत्सव में शामिल होने पर सहमत हो गये. देखते ही देखते गांव-गांव में जश्न सा माहौल बनता चला गया. हर गांव में जीत का ऐसा जुनून पनपा कि लोग रात दिन इस महोत्सव में अच्छा प्रदर्शन करने के मकसद से रिहलसल करने लगे. महोत्सव के लिए हमने साहबगंज में हर गांव के लिए एक यानी कुल 72 स्टेज बनवाये. जिस पर उन्हें नृत्य पेश करना था. और उसके बाद 73वें स्टेज पर उन्हें फाइनल परफार्मेंस देना था. हर गांव के लोग इस महोत्सव में शामिल हुए.
आजादी के बाद पहली बार एक जश्न के रूप में उनके जीवन में जोश आया था. गांव के लोग 12- 15 किलोमिटर से पारम्परिक लिबास में नाचते गाते महोत्सवस्थल पर पहुंचे. गजब का उत्साह था. इस महोतस्व के समापन तक उन्हें यह एहसास हो चुका था कि उनके वजूद का भी कुछ महत्व है. विजय प्रकाश 23 साल पुराने इस वाक्ये को याद करते हुए कहते हैं, “यह उनके जीवन में उम्मीदों को पंख दे गया”.
इस आयोजन ने उनके और उनके बच्चों के जीवन में आगे बढ़ने की जबर्दश्त प्रेरणा दी.फिर हमने इस उत्साह को उनके शैक्षिक और सामाजिक विकास से जोड़ने की कोशिश की. इसका असर भी हुआ. उन्हें हम यह समझाने में कामयाब रहे कि अगर वो बच्चों को पढायेंगे तो जीवन सुखी बनेगा.
कम शिक्षा और समाज की मुख्यधारा से अलग रहने के उनके स्वाभाव के कारण बाकी दुनिया के प्रति उनमें फैली उदासीनता को कम करने में हम एक हद तक सफल होने लगे. तब हम उनके जीवन में उत्साह भरने के लिए कुछ और करना चाहते थे. हम चाहते थे कि उनके बच्चे स्कूलों का रुख करें.
एक अजीब घटना जो प्रेरक बनी
हम इसी उधेड़बुन में थे कि अचानक एक अजीब व गरीब घटना हुई.इस समाज की एक लड़की का रेप हो गया था. यह घटना इस समाज के आत्मसम्मान पर बहुत बड़ा आघात था. इस मामले को लेकर स्थानीय प्रशासन पर इन्हें कम भरोसा था. लेकिन उनके लोगों को बड़े साहब से (मुझसे) उम्मीद थी. क्योंकि तब तक वह डायरेक्ट हमसे मिल चुके थे. एक दिन अचानक 25-30 लोगों का जत्था मेरे आवास पर पहुंचा. और उसने हमारे कर्मियों से कहा कि वो मारंग साब( वे लोग डीएम को मारंग ही बोलते हैं) से मिलना चाहते हैं. मैंने खबर भेजवायी कि उनके तीन लोगों को अंदर भेज दो. पर वे इस जिद्द पर अड़े रहे कि वे सब एक ही साथ मिलना चाहते हैं. तो मैंने कहा सब को भेज दो. बाद में उनलोंगों ने घटना की तफ्सील बतायी और उस पर कार्रवाई हुई. पर उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात यह बतायी की उनमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मारंग साब से समूह के बिना अकेले मिल सकें. इस घटना ने मुझे प्रेरित किया कि उनमें आत्मविश्वास जगाने की जरूरत है. लेकिन पहाडि़या लोगों का मेरे आवास पर मिलने आने की इस घटना ने मेरे उधेड़बुन को खत्म कर दिया. मुझे जैसे एक सूत्र मिल गया कि कैसे उनके जीवन में उत्साह और आत्मविश्वास भरा जा सकता है. इसलिए मैंने तय किया कि मैं खुद उनके गांवों में जाऊं और उनसे सम्पर्क करूं. मेरा मकसद एक तरफ उनके जीवन में उत्साह भरना था तो दूसरी तरफ शिक्षा के प्रति उनकी पीढियों में लगाव भी पैदा करना था.
उमंग का संचार
उस समय स्कूलों और शिक्षा के प्रति उनकी बेरुखी की एक वजह यह भी थी कि उनमें पढ़ने लिखने के प्रति भी कोई मोह या लगाव नहीं था. इसलिए हमने तय किया कि मुझे अपना संडे उनके साथ बिताना चाहिए. हम अपनी पत्नी के (मृदुला प्रकाश जो क्रिएटिव लर्निंग की निदेशक हैं) साथ उनके गांव हर संडे पहुंचने लगे. पत्नी को साथ लेने का मेरा उद्देश्य यह हुआ करता था कि महिलाओं की मौजूदगी में उनमें अपनापन का एहसास बढे. हम उनके गांवों में जाने लगे. देखते देखते गांवों के लोगों में बड़े पैमाने पर उत्साह और उमंग बढ़ने लगे. कई गांवों से हमें बुलाने के लिए निवेदन आने लगे. कुछ गांव तो ऐसे भी थे जहां वाहन से पहुंचना संभव नहीं था पर उन्होंने उसका भी समाधान निलकाना शुरू कर दिया. कई गांवों के लोग हमारे आने के लिए 8-10 किलोमिटर कच्ची सड़कें सामुहिक रूप से बनवाये. इस उत्साह को हमने उनमें शिक्षा के प्रति आकर्षण बढ़ाने की तरफ मोड़ना शुरू किया.
दो सालों में मेरा वहां से ट्रांस्फर हो गया. 12-13 सालों के बाद हमने उन इलाकों का फिर दौरा किया तो पाया कि उनके अंदर व्यापक परिवतर्न हुए हैं. कुछ परिवर्तन ऐसे हैं जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती. शिक्षा ने उनके जीवन में साकारात्मक बदलाव तो लाये ही, जीवन के प्रति उत्साह भी बढ़ा है उनमें. सरकारी नौकरियों में उनकी नयी पीढी का प्रतिनिधित्व काफी बढ़ा है.
विजय प्रकाश कहते हैं, “ब्योरोक्रेट्स चाहें तो समाज के कमजोर वर्ग के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन ला सकते हैं. इस अनुभव ने मुझे यही सिखाया है. इसके लिए न तो बड़े संसाधन की जरूरत है और न ही कोई पालिसी इसमें कभी बाधा बनती है. बस छोटी सी सोच एक बड़े परिवर्तन का कारक बन सकती है.”
विजय प्रकाश फिलहाल बिहार सरकार में योजना एंव विकास विभाग में प्रधान सचिव हैं, उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.