हर समुदाय में नौजवानों की बहुत अहमियत होती है. अपने वक्त का यह तबका ही उस समुदाय के मुस्तकबिल का प्रतिनिधि माना जाता है. इसलिए यह बात बहुत अहम हो जाती है कि हमारी नई पीढ़ी सकारात्मक सोच की हामी है या नकारात्मक विचारों में पल-बढ़ रहा है.
नई नसल को अगर हमारे रहनुमा और उनके बुजुर्गों की तरफ से सकारात्मक सोच मिलती है तो वह तरक्की मेहनत और हौसलामंदी के साथ आगे बढ़ने का रास्ता अपनाता है. और अगर नकारात्मक दृष्टिकोण उनके अंदर फलता-फूलता है तो उसका परिणाम कभी भी सकारात्मक नहीं हो सकता.
इसी संदर्भ में कुरान इंसानों के साथ अच्छा सलूक करने के लिए जो हुकुम देता है उसका दायरा कितना विशाल है वह इस आयत से समझा जा सकता है. कुरान के 28 वें पारे में यह कहा गया है कि हो सकता है कि ‘अल्लाह तुम्हारे दरमियान और जिन से तुम्हारी दुश्मनी है उनके दरमियान मोहब्बत और दोस्ती पैदा कर दे’,.
इसके बाद वाली आयत में है कि ‘अल्लाह ताला उन लोगों से जिनसे दीन के मामले में तुम्हारे जंग नहीं हुए और उन्होंने तुम्हें घर से निकाला उनके साथ अल्लाह ताला तुम को इस बात से मना नहीं करता कि तुम उनके साथ नेकी करो और इंसाफ करो. अल्लाह इंसाफ करने वालों को पसंद करता है’.
कुरान की इस आयत को हम इस तरह से व्याख्या कर सकते हैं किसी मुल्क का नागरिक होने का मतलब सबसे पहले यह होता है कि उस मुल्क के दस्तूर व कानून को वह स्वीकार करता है. इस्लाम में इस बात को स्पष्ट रूप से महत्व दिया गया है कि हम अपने मुल्क और मुल्क कानून को पूरी निष्ठा के साथ पालन करें. यह कुरान की जबरदस्त रहनुमाई है. हमारे मुस्लिम नौजवानों के लिए कि हमें तमाम मजहब वालों के साथ बराबरी के लेवल पर अपने दस्तूर से बंधे हुए हैं इसलिए हमारे वतन के खिलाफ कोई मुस्लिम मुल्क भी नुकसान पहुंचाने की कोशिश करे तो कुरान और ईमान का तकाजा यही है कि कोई भी ईमान वाला दुश्मन देश की हिमायत वह हमदर्दी नहीं कर सकता.
अब हमें गौर करना चाहिए कि हमारे बड़ों की तरफ से नई नस्ल के दिमाग में कुरान की यह रहबरी बिठाई जाए तो उसेके अंदर कितना ज्यादा आत्मविश्वास पैदा होगा. ऐसी तालीम अगर हम अपनी नई नस्ल को देंगे तो वह वतन के सामाजिक जीवन के साथ-साथ इस्लामी तालीमात पर भी अमल करेगा. और यह बात हमारे नौजवानों को दोहरी खुशी देगी.
इतना ही नहीं ऐसी तालीम के कारण नई नस्ल अपनी तरक्की और समाज को मजबूत करने में दोहरे जोश के साथ आगे बढ़ेगी.
हमें यह याद रखना चाहिए कि पैगम्बर सल्ललाहो अलैहे व सल्लम की पूरी जिंदगी भी इसी की मिसाल है.