वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार समाजवाद की अवधारणा को नये परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करते हुए एक नये मंच को मूर्तरूप देने की कोशिश कर रहे हैं. यह आलेख लम्बा है और धीरज की उम्मीद करता है
बिहार की आज की ज़रूरत मध्यम,लघु और सीमांत किसानों,खेत मज़दूरों, ग्रामीण और शहरी दस्तकारों, मध्यम,लघु और सीमांत उद्यमियों, अति-पिछड़ी जातियों, दलितों, महादलितों,अल्पसंख्यकों,जनतांत्रिक बुद्धिजीवियों, असंगठित और संगठित क्षेत्र के मज़दूरों, लघु,मध्यम और सीमांत व्य्वसायियों के हितों के लिए राजनीतिक और सामाजिक हक़ हासिल करने के लिए काम करना है जिससे राज्य की बेहतरी के लिए सभी जातियों के गरीबों के साथ मिल बैठ कर,संश्रय स्थापित कर, काम करना है और उनके हितों के लिए संसद से सड़क तक लड़ाई लड़ना है.
विगत दिनों सन १९९० के बाद मंडल की राजनीति के आने के बाद ऐसा लगा था कि
बिहार में नई राजनीति – सामाजिक न्याय की राजनीति चलेगी और जनतांत्रिक शक्तियां मज़बूत होंगी, सभी जातियों के गरीबों का एका बनेगा, दलित, महादलित,पसमांदा, अल्पसंख्यकों और पिछड़ी जातियों के गरीबों को भी उनका हक़ मिलेगा, जातिवाद की राजनीति का अंत होगा, और राजनीति और समाजनीति सभी गरीबों के हक़ में चलायी जायेगी। मगर ऐसा नहीं हो पाया और फर्क सिर्फ इतना ही हुआ कि राजनीति पर कतिपय मध्यवर्ती जातियों का कब्ज़ा हुआ। वस्तुतः सामाजिक न्याय की राजनीति स्थापित नहीं हो पायी।
लोहिया के बाद
लोहिया जी ने भी जाति -प्रथा नामक अपने आलेख में इस संदर्भ में अपने विचार रखते हुए इस खतरे को रेखांकित करते हुए ज़िक्र किया था कि ऐसा भी हो सकता है कि सामाजिक न्याय की लड़ाई के बाद मध्यवर्ती जातियों का उदय नए शासक वर्ग के रूप में हो जो विलोम ब्राह्मणवाद की तरह तो जरूर हो मगर अपने अंतर्वस्तु में वह ब्राह्मणवाद से बिलकुल भिन्न नहीं हो.
१९९० के बाद की राजनीति पर नज़र डालने से ऐसा प्रतीत होता है कि अभी तक की राजनीति में अति-पिछड़ों को मोहरे के तौर पर भले ही इस्तेमाल किया गया हो और दिखने दिखाने के लिए लोकसभा,राज्य सभा, विधान सभा और विधान परिषद में भी कभी कभी मनोनीत किया गया हो, भेजा गया हो, मगर अंतर्वस्तु में राजनीति में आज की तारीख तक उनको उनका वो हक़ नहीं मिला है, जिसके वो हक़दार हैं। कमोबेश यही स्थिति दलितों,महादलितों, अल्पसंख्यकों के गरीबों की भी हैं -कुछ कॉस्मेटिक परिवर्त्तन भले दिखने – दिखाने की कोशिश की गयी मगर इन वर्गों के गरीबों को भी बिहार की राजनीति में आज भी अपना उचित हिस्सा नहीं ही मिल पाया है। हमे इन तमाम वंचित वर्गों की लड़ाई लड़ने के संकल्प के साथ एक राजनीतिक – सामाजिक मंच के रूप में काम करना ही होगा।
बिहार वस्तुतः एक खेतिहर राज्य है जहां आज भी बहुमत के आर्थिक विकास का एक ही कारगर उपाय दिखता है कि यदि बिहार के विकास को गति देनी है तो यहाँ की किसानी को विकसित करना होगा और किसानी को लाभकर बनाने के लिए, सस्टेनेबल बनाने के लिए यहाँ बड़े पैमाने पर कृषि आधारित उद्योगों का जाल बिछाना होगा ताकि किसानो को उनके उत्पादों का उचित मूल्य मिल सके, वे अपने खेतों में काम कर रहे खेतिहर मज़दूर भाइयों को भी बढ़ी हुई दर पर मज़दूरी दे पाने में भी सक्षम हो सकें, देहाती दस्तकार जातियों के कामगारों को गांव में ही रोजगार मिल सके और लघु,मध्यम और सीमांत किसान परिवारों के बच्चों को भी अलाभकारी खेती की वज़ह से दिल्ली,मुम्बई, चेन्नई, बेंगलुरु,गुवाहाटी, कोल्काता जैसे महानगरों में मज़दूर के रूप में काम करने के लिए पलायन को विवस नहीं होना पड़े।
मगर अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि किसानी के विकास का मुद्दा बिहार में किसी भी दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी, वामपंथी राजनीतिक दलों के एजेंडे में नहीं है। हम इस दिशा में भी सभी ग्रामीण लोगों जिसमे सभी जातियों के गरीब शामिल होंगे, को लेकर काम करने,संघर्ष करने ककी ज़रूरत है।
नहीं चाहिए जॉबलेस ग्रोथ
हमारा मत है कि जाबलेस ग्रोथ ( रोजगार रहित विकास) सिर्फ अमीरों का विकास है जिसका आम आदमी के विकास से कुछ लेना देना नहीं है। इसलिए बड़े उद्योगों के लिए हम सिर्फ वहीं इजाज़त् देंगे जो हमारे राज्य के पुराने औद्योगिक क्षेत्र रहे हैं और इसके लिए नई कृषि योग्य ज़मीनों का अधिग्रहण करने की इज़ाज़त नहीं दी जा सकती है। इस संदर्भ में हमें ऎसी राजनीतिक स्थिति बनानी पड़ेगी कि किसी भी उद्योगपति को उद्योगों के बंद होने की स्थिति में, जिस जमीन पर वह उद्योग स्थापित है, उसकी मिलकियत पर काबिज़ रहने का कानूनी अधिकार उनसे छीन लिया जाए और उन ज़मीनो का अन्य व्यावसायिक इस्तेमाल करने की इज़ाज़त उनको कतई नहींदिया जाए । इस सन्दर्भ में उदाहरण के तौर पर समझने के लिए हम कहना चाहेंगे कि मान लीजिये कि किसी उद्योगपति को रोहतास इंडस्ट्रीज चलाने के लिए किसी जमाने में ज़मीन मिली और बाद में उस उद्योगपति ने अपनी इंडस्ट्री बंद कर दी तो वैसी स्थिति में उद्योग के बंद होते ही उस मालिक की उस ज़मीन की मिलकियत स्वतः समाप्त हो जायेगी और वह उसे किसी और काम के लिए बेच नहीं सकेगा।और फिर वह ज़मीन किसी अन्य उद्योगपति को जो इसके लिए वहाँ अपना उद्योग लगाने के लिए आगे आएगा उसकी कीमत लेकर दी जायेगी और उस कीमत से उद्योगों के बंद होने से प्रभावित मज़दूरों को उनके बकाये, मुआवज़े के भुगतान और अन्य बकायेदारों के भुगतान के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा।
शिक्षा जगत के कलेक्शन एजेंट
शिक्षा के क्षेत्र में हम इस बात पर गम्भीर चिंता व्यक्त करते हैं कि गरीबों के लिए बनी सरकारी स्कूल सिस्टम को पिछले दिनों कथित सामाजिक सरोकारों वाली सरकारों द्वारा ज्यादा नुकसान पहुँचाया गया जिससे जगह जगह कुकुरमुत्तों की तरह निजी विद्यालयों की बाढ़ आ गयी। सरकारी स्कूलों को लूट और भ्रस्टाचार का केंद्र बना दिया गया और इसे नौकरशाहों का चारागाह बना दिया गया जिसके लिए स्कूलों के शिक्षक मज़बूर किये गए। शिक्षकों को शिक्षक रहने ही नहीं दिया गया है और शिक्षकों के एक हिस्से ने तो इस भ्रस्टाचार के हिस्से के रूप मे ही काम करना शुरू कर दिया है जो शिक्षा विभाग के बाबुओं के कलेक्सन एजेंट के तौर पर काम कर रहे हैं। सरकारी शिक्षकों को आज बेईमान होने के लिए विवश किया जा रहा है। इस स्थिति को बदलने के लिए काम करने की ज़रुरत है और सरकारी शिक्षा को इंस्पेकटर राज से पूर्णतया मुक्त कराने की जरूरत है ताकि सरकारी स्कूल सिस्टम को फिर से पठन पाठन के केंद्र के रूप में विकसित किया जा सके और आम आदमी सरकारी खर्चे पर अपने निवास स्थान के पास ही बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सके।
प्रकाश की गति में बिजलीमीटर
हम राज्य के विकास के लिए बिजली को एक आवश्यक अवयव मानते है और कृषि और उद्योगों के लिए अबाधित विद्युत् आपूर्ति के लिए नए नए पनबिजली संयंत्रों सहित, ग्रीन पॉवर के अन्य विकल्पों का भी सहारा लेने तथा पारम्परिक थर्मल पॉवर सहित अन्य राज्यों से भी बिजली खरीदने जैसे उपायों का सहारा लेना पड़ेगा तथा आम आदमी के लिए सस्ती बिजली उपलब्ध कराने के लिए प्रकाश की गति से भाग रहे बिजली के मीटरों के जांच की भी व्य्वस्था करनी पड़ेगी। आज बिजली उपभोक्ताओं की ओर से मीटरों के द्वारा उपभोग से अधिक बिजली के मीटरों द्वारा रिकॉर्ड किये जाने की शिकायत आम है।
बिजली विभाग के भ्रस्टाचार की शिकायत भी आज आम है और उसकी वजह से बिजली की दरें आज आसमान छू रही हैं इसलिए जनतांत्रिक चेतना मंच इस की जांच के लिए कटिबद्ध है साथ ही इसका फायदा भी आम आदमी को पहुंचाने के लिए वचनबद्ध है।
सरकार और प्रशासन के हर क्षेत्र में आज भ्रस्टाचार कैन्सर की तरह व्याप्त है और इस संबंध में जीरो टोलरेंस की नीति पर चलने की ज़रूरत है और भ्रस्टाचारियों के खिलाफ सतत अभियान चला कर फास्ट ट्रेक कोर्ट के जरिये दिला कर उनको जेल के सीखचों के पीछे ले जाने की आज सख्त आवश्यकता है। .
धन और गन( GUN)
राजनीतिक सुचिता आज के समय की मांग है और इस सिद्धांत और नीति को सामाजिक-राजनीतिक जीवन में लागू करने के लिए कटिबद्ध है इसके लिए अपने लोगों के सत्ता में आने का इंतज़ार करने के पहले ही ही लोगों के बीच जाकर चुनाव को धन और गन (gun) के प्रभाव से मुक्त करने का अभियान चलाने की ज़रूरत है ताकि एक आम मतदाता अपने मतों का महत्व समझे और इसकी बिक्री से परहेज करे। आज यह आम शिकायत है कि मतदाता अपने मतों को शराब और पैसे के बदले,जातिवाद के नाम पर बेचते हैं और बूथ खर्च के नाम पर आज उम्मीदवारों की लूट की जाती है। फिर बाद में वही आम आदमी जो अपने आप में एक मतदाता भी है चिल्ला रहा दिखता है कि सभी नेता चोर हैं। मगर सवाल यह भी है कि जब एक उम्मीदवार चुनाव के पहले ही लुट चुका हो उससे ईमानदारी की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? फिर क्या यह बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाये वाली स्थिति नहीं है ? इसलिए यदि ईमानदार आदमी चुनाव लड़ने की स्थिति में रहे यह स्थिति बनानी है तो चुनाव को धन और गन (gun) के प्रभाव से मुक्त करना उसकी प्रथम शर्त है। बिना इसके किसी आदर्श सिस्टम की स्थापना की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।
बिहार की जनता सर्व धर्म समभाव और धर्मनिरपेक्षता के सिध्धान्तों के प्रति समर्पित है और यह मानती है कि इसके बिना कोई देश और समाज आज नहीं चल सकता है. वह हर किस्म के धार्मिक कट्टरता के खिलाफ है और किसी भी तरह के धार्मिक और जातीय आधार पर किसी भी भेद भेद-भाव के खिलाफ है।
वामपंथी व धार्मिक उग्रवाद
वामपंथी उग्रवाद और धार्मिक उग्रवाद पर भी हमें पुनर्विचार करना पड़ेगा। जहाँ हम बिहार में चल रहे और चलाये जा रहे वामपंथी उग्रवाद को लेनिन के शब्दों में एक बचकाना मर्ज़ समझते हैं वहीँ हम इस बारे में स्पस्ट राय रखते हैं कि अभी वामपंथी उग्रवाद का जो संस्करण बिहार में चलाया जा रहा है वह मार्क्स के और महान लेनिन के सिध्दांतो का मज़ाक है. महान सिद्धांतकार लेनिन ने जहां क्रांति के लिए किसानों और मज़दूरों की एकता को आवश्यक बताया वहीँ वामपंथी उग्रवाद के नेता बिहार की धरती पर इसे किसानों और खेतमज़दूरों के बीच लड़ाई का मैदान बना कर इसे शोषक साम्राज्यवादियों और वित्तीय पूंजी के आकाओं के हित साध रहे हैं जिसके लिए इतिहास उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा। जिस बिहार की धरती पर महान किसान नेता और किसान संघर्ष के योद्धा महामानव स्वामी सहजानंद और महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन जैसे महान नेताओं ने किसानों और खेत-मज़दूरों की एकता के लिए काम किया वहीं आज के कथित वामपंथी उग्रवादी किसानों और खेत मज़दूरों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर वर्गीय एकता को नष्ट कर रहे हैं और वित्तीय पूँजी की सेवा कर कर रहे हैं।
माओ के रास्ते से अलग माओवादी
इतना ही नहीं माओ ने अपने आलेख “अंतर्विरोध के बारे में” स्प्ष्ट लिखा है कि समाज में व्याप्त मुख्य और गौण अंतर्विरोधों की पहचान की जानी चाहिए और मुख्य अंतर्विरोध को केंद्रित कर गौण अंतर्विरोध वाली शक्तियों से मोर्चा बनाया जाना चाहिए मगर इसकी अनदेखी कर सभी किसानों को वर्ग दुश्मन की तरह चिन्हित कर वामपंथी उग्रवाद के बिहारी पैरोकार किसानों और खेत-मज़दूरों को एक दूसरे के खिलाफ खड़े कर बिहार के ग्रामीण इलाकों में खेती-किसानी के पेशे को ही अवर्णनीय नुकसान पहुंचा रहे हैं और इस तरह ग्रामीणों की एक बडी आबादी को उनके रोजी रोजगार की सम्भावनाओं को संकुचित कर उन्हें रोजगार की सम्भावनाओं की तलाश के लिए शहरों में पलायन की स्थिति उत्पन्न कर उन्हें वित्तीय पूँजी के लिए सस्ते मज़दूर मुहैया करा कर वस्तुतः एक सच्चे सेवक की तरह साम्राज्यवादी, पूंजीवादी शक्तियों की सेवा कर रहे हैं।
हम उनकी इस कार्यप्रणाली से इत्तेफाक नहीं रखते हैं और गाँव में, ग्रामीण समाज में किसानों और खेत मज़दूरों की एकता के लिए काम करने को प्रतिबद्ध हैं। हम उनकी ज़मींदार, धनी किसान, बड़े, मध्यम, लघु और सीमांत किसान के वर्गीकरण को दरकिनार कर सभी किसानों को वर्ग-दुश्मन की श्रेणी में रखने की नीति को भी गलत मानते हैं। इतना ही नहीं मंच वामपंथी उग्रवाद के बिहारी संस्करण में जातीय आधार पर अपने वर्ग-दुश्मन चिन्हित करने की प्रवृत्ति को भी किसानों और खेत मज़दूरों की एकता के लिए खतरनाक मानती है और इसे साम्राज्यवादी शक्तियों की सेवा के रूप में चिन्हित करती है। उनके इस कुकृत्य से देश के गरीबों की एकता खंडित होती है और पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष कमज़ोर होता है। मगर हम यहाँ वामपंथी उग्रवाद के कार्यों का विश्लेषण करते हुए कहीं से भी अवैज्ञानिक रुख नहीं रखते और जहां वे वित्तीय पूंजी के खिलाफ खडे होते, देश के खनिज संसाधनों की लूट के खिलाफ खडे होते हैं और आदिवासियों के विस्थापन के खिलाफ खड़े होते हैं हम उनके संघर्षों को सलाम भी करते हैं मगर हम यहाँ भी उनकी गलत कार्यप्रणाली की मुखालिफत की अपनी स्वतंत्रता को कायम रखना चाहेंगे ताकि समय पर उनका भी तार्किक विश्लेषण करने का हमारा अधिकार कायम रहे। हम मानते हैं कि जहाँ जहाँ भी आज भी आज देश के मुख्तलिफ हिस्सों में संघर्ष हो रहोहा है वहाँ ये मौजूद हैं। जबकि कथित मुख्यधारा की वाम, मध्य, दक्षिण पार्टियां वहाँ बिलकुल नहीं हैं।
उसी तरह हम किसी भी किस्म की धार्मिक कटटरता के खिलाफ हैं। हम सभी मुसलमानों को देश-द्रोही, इस्लामिक कट्टरतावाद का समर्थक नहीं मानते हैं। हमारा मानना है कि सभी धर्मों में गलत और सही लोग हैं और उनके साथ सबूतों के आधार पर कारवाइयां होनी चाहिए। हम धार्मिक आधार पर मुसलमानों के साथ हो रहे भेदभाव के सख्त खिलाफ हैं और इस मामले में उनके न्याय के संघर्ष में उनके साथ खड़े हैं।
अरुण कुमार टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व पत्रकार, फिलहाल प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के सदस्य. समाजवाद और साम्यवादी बारीकियों की गहरी समझ रखते हैं.