मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मीडिया के ‘दोहरे’ स्टैंडर्ड से आहत हैं। एक साल 5 महीना पहले मीडिया के लिए भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा था। लेकिन एक साल पांच महीना पहले जब भाजपा जदयू के साथ सत्ता में आ गयी तो मीडिया ने भ्रष्टाचार का मुद्दा छोड़ दिया है। एक साल पांच महीना पहले के भ्रष्टाचार के मुद्दों को कोई फॉलोअप भी नहीं कर रहा है। लगभग यही पीड़ा थी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की। लोकसंवाद के बाद मीडिया से चर्चा में सीएम ने साफ शब्दों में कहा कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आपकी ही खबरों को ट्विट करेंगे तो मीडिया की असलियत सामने आ जाएगी।
वीरेंद्र यादव
सीएम की भावनाओं का मीडिया को सम्मान करना चाहिए। लेकिन मीडिया के लिए भ्रष्टाचार मुद्दा कब था? सीएम जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे की चर्चा कर रहे थे, वह तो सुशील मोदी का मुद्दा था। सुशील मोदी भ्रष्टाचार का मुद्दा उछालते थे और मीडिया उसे लोक लेता था। सुशील मोदी सीएम नीतीश को भ्रष्टाचार के ही कठघरे में खड़ा कर हथियार डालने के लिए विवश कर सकते थे। 40-42 प्रेस कॉन्फ्रेंस में सुशील मोदी राजद प्रमुख लालू यादव के खिलाफ आरोपों का ‘पत्थर’ उछालते थे और एक पत्थर सीएम की ‘अंतरात्मा’ पर भी फेंक देते थे। इन्हीं पत्थरों को मीडिया ने लोक-लोक कर आरोपों का पहाड़ खड़ा कर दिया। आरोपों के पहाड़ के नीचे नीतीश को अपना ‘प्रशासनिक कद’ ओछा लगने लगा। इससे परेशान नीतीश कुमार ने 22 जुलाई, 2017 को अरुण जेटली के माध्यम से भाजपा के समर्थन का आग्रह पीएम नरेंद्र मोदी के पास भिजवाया और एक सप्ताह के भीतर सुशील मोदी सत्ता में थे। ठीक एक साल पांच महीना पहले।
मीडिया के लिए भ्रष्टाचार कभी मुद्दा नहीं रहा। न आज, न एक साल पांच महीना पहले। बल्कि सुशील मोदी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मीडिया को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया था। इसलिए एक साल पांच महीना पहले सुशील मोदी सत्ता में आये और भ्रष्टाचार का मुद्दा समाप्त हो गया। हालांकि सुशील मोदी आज भी लालू परिवार के प्रति ‘आरोपों का अभियान’ पूरी ताकत से चला रहे हैं। मीडिया उसे प्रमुखता से छापता है, क्योंकि लालू से जुड़ी खबरों की पठनीयता कम नहीं हुई है। लेकिन नीतीश को अब मीडिया में भ्रष्टाचार की खबरें नहीं दिख रही हैं। वजह साफ है कि अब मोदी एक ‘पत्थर’ नीतीश की अंतरात्मा पर नहीं फेंक रहे हैं। इसके लिए दोषी सुशील मोदी हो सकते हैं, मीडिया पर दोषारोपण का कोई औचित्य नहीं है।