वर्ग-जाति-संप्रदाय से भेदभाव करते हुए मीडिया ‘आप की आवाज’ बने,  मुट्ठी भर लोगों की कीमत पर ‘देश की धड़कन’ बने  और ‘सबसे आगे’ रहकर ‘खबर हर कीमत पर’ दे तो क्या ‘सच जिंदा रहेगा’ ?media

मुकेश कुमार

मौत एक त्रासदी है,पर भारतीय मुख्यधारा के मीडिया में मौत एक पैकेज है जो टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट अर्थात् टी.आर.पी बढ़ाने का एक माध्यम है. मीडिया में दिखाई जाने वाली मौत की घटना की भी एक जिंदगी होती है. पर मीडिया के बाजार में सभी मौत एक पैकेज नहीं होती है बल्कि उसमें भी भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया जाता है.यह भेदभाव कभी क्षेत्रीय समीपता के कारण होती है तो कभी जाति-धर्म-विचारधाराओं की टकराहट के रूप में उभर के आती है.

मौत जाति-वर्ग-धर्म भेद नहीं करता है पर भारतीय मुख्यधारा का मीडिया यह भेद करता है. यह सिंड्रोम बताता है कि मीडिया में मौत भी बेची जा सकती है.पिछले कुछ दिनों में मीडिया ने मौत पर अलग-अलग तरह से तानने का प्रयास किया है.मीडिया में कश्मीर में होने वाली मौत दिल्ली में होने वाली मौत से कैसे अलग हो जाती है ? मीडिया में आंध्रप्रदेश-तेलंगाना-कश्मीर-पूर्वोतर भारत में होने वाली मौत क्यों नहीं सवाल खड़ा कर पाती है ? विदर्भ में आत्महत्या करने वाले किसानों की खबर क्यों नहीं किसान आत्महत्या के मुद्दे को उतने प्रमुखता से उभार नहीं पाता,जो दिल्ली में होने वाली  आत्महत्या की खबर से हो जाता है. दिल्ली में जेसिका लाल की मौत और निर्भया को लेकर जो शुरू होता है वो छतीसगढ़ की लड़की कड़ती पेंटी और माडवी रामा को लेकर शुरू क्यों नहीं हो पाता है ? क्या मीडिया,मौत में बाजार का एंगल भी देखता है. वंचितों,किसानों और दलित-आदिवासीयों के लिए मीडिया में वो सकारात्मक सरोकार नहीं दिखता है.वो सकारात्मक हस्तक्षेप नहीं दिखता है जो बदलाव के लिए जरुरी हो.

वे जो मुद्दे बनाते हैं

शर्मीला इरोम का अनशन अन्ना हजारे के अनशन के सामने उतनी चर्चा का विषय नहीं बनता. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में घटने वाली किसान गजेन्द्र सिंह के आत्महत्या की एक घटना राष्ट्रीय शर्म का विषय बन जाती है,पर प्रतिदिन लगभग औसतन 40 किसानों की आत्महत्याओं की खबर सुर्ख़ियों में भी नहीं आ पाती है. विदर्भ में एक ही परिवार की कई लोगों के अपने खेत में ही जीवन लीला समाप्त करने की खबर पर्याप्त चर्चा का विषय नहीं बन पाती. किसानों की आत्महत्याओं की खबर तब तक मात्र एक संख्या थी जब तक दिल्ली में ‘मौत लाइव’ नहीं हुई,परन्तु इस लाइव मौत ने भी मुद्दे को गुमराह कर दिया. मीडिया ने गजेन्द्र सिंह की आत्महत्या के मुद्दे के मूल कारण को ही गायब कर दिया. किसानों के आत्महत्याओं के कारण खोजने के बजाए मीडिया इस मुद्दे पर प्राइम टाइम में तानने लगे.

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में पुलिस एनकाउंटर में मारे गए लोगों की सच्चाईयों को लाने का काम करता हुआ मीडिया नहीं दिखता. तेलंगाना पुलिस के द्वारा मोहम्मद इजहार खान,मोहम्मद हनीफ़ खान,बकरुदीन अहमद,सैयद अमजद अली और मोहम्मद ज़ाकिर के फर्जी मुठभेड़ की जो कहानी अब तक सामने आई है उसमें मीडिया क्यों नहीं इसके गुनाहगार तय करने का काम करता दिखता है. विश्व कप क्रिकेट में हार के गुनाहगार तय करने वाले इस मामलों में कैसे इतने संवेदनहीन हो जातें हैं?

जिस तरह की तस्वीरें अब तक सामने आई है उससे यही पता चलता है कि यह नियोजित तरीके से इनकी हत्या की गई है. पुलिस ने इन युवकों की पहचान सिम्मी के आतंकवादी के रूप में की थी. अगर यह सिम्मी से जुड़े थे तो भारतीय न्यायालय इनकी सजा तय करती. जिस तरह की कहानी तेलंगाना पुलिस ने गढ़ी है वो क्यों नहीं मीडिया द्वारा शक के घेरे में लाया जाता है. “करोड़ो लोगों के न्याय के लिए दिन-रात चैनल लड़ते रहते हैं” का दावा करने वाले लोग क्यों खामोश हो जातें हैं ? आंध्र प्रदेश पुलिस द्वारा चितूर जिले के सेशाचालम के जंगलों में तमिलनाडु के 20 लकड़हारे की हत्या भी कोई बड़ी खबर नहीं बन पाती है. यह मात्र एक आंकड़ा बन कर न्यूज रूम में घूमता रहता है. ‘सच दिखातें हैं हम’ का भ्रम तब टूटता हुआ नजर आता है जब मीडिया इस मामलें अपनी उतनी सकरात्मक हस्तक्षेप करती हुई नहीं दिखती है.

 बेईमान मीडिया

काश इन खबरों को भी उसी शिद्दत के साथ बताया-दिखाया जाता जैसे कि मसरत आलम के सभा में पाकिस्तानी झंडे लहराये जाने की खबर को ताना जा रहा था. भारतीय मीडिया एक बार फिर कश्मीरी लोगों को यह बताने-जताने में नाकाम रहा कि दिल्ली का मीडिया उनकी अपना मीडिया है जो उनके दुःख-दर्द की हमदर्द है. मसरत आलम की सभा में चंद पाकिस्तानी झंडे उनको दिखाई देते रहें पर जम्मू-कश्मीर के वो 65 प्रतिशत आवाम नहीं दिखे जिसमें भारत की व्यवस्था में अपना मतदान दिया. मसरत आलम की सभा में चंद झंडे से आपका देशभक्ति शक के दायरे में आ जाता है पर 65 प्रतिशत लोगों के वोट के सामने कमजोर लगने लगता है,आखिर क्यों ? कश्मीर के मुद्दे को लेकर मीडिया क्यों एक अलग नजरिये से देखता है? क्यों चंद लोगों की वजह से कश्मीरियों की देशभक्ति शक के घेरे में ली जाती है ? क्यों नहीं मीडिया उन 13 कश्मीरी छात्रों के मुद्दे को उठाता है जिसे ‘रोहतक इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड मैनेजमेंट’ से निकाल दिया जाता है क्योंकि “प्रधानमंत्री स्पेशल स्कोलरशिप स्कीम” के पैसे समय पर नहीं पहुंच पाती है? मीडिया नसीर सोफ़ी की तरफ से क्यों नहीं सवाल खड़े करता है कि परीक्षा से पहले इस तरह निकाले जाने के बाद उसका भविष्य क्या होगा ? सुबह-सबेरे हर आदमी के भविष्यवाणी के लिए फुर्सत के क्षण निकालने वाले मीडिया से मैं पूछना चाहता हूं कि ‘इस तरह की सकरात्मक खबरों का भविष्य क्या है ?’ मसरत आलम की रिहाई के मामले में मीडिया एक बार यह बताने में  बेईमान  रहा कि रिहाई के आदेश माननीय उच्चतम न्यायालय ने दिए थे,यह भ्रम फ़ैलाने का प्रयास किया गया कि कि इसकी रिहाई मुफ़्ती मोहम्द की सरकार ने की है.

एजेंडे का वाहक

सरकार दरअसल में मीडिया का प्रयोग अपने एजेंडे को सही बताने में करती रही है. शुभ्रांशु चौधरी की किताब “Let’s Call Him Vasu” (उसका नाम वासु नहीं) में इस पहलू की भी पड़ताल करती है कि किस तरह संचार माध्यमों में सलवा जुडूम के अत्याचारों और हमलों के बारे में चुप्पी साधे रहती है,वो सिर्फ पार्टी के आक्रमण की खबरों को प्रमुखता से छापती है.इन्होनें बताया है कि किस तरह लड़कियों को घरों से ले जाकर बलात्कार करते हैं और उनकी हत्या करके फर्जी नक्सली बनाकर मीडिया में पेश करते हैं. “जब मैंने साथी पत्रकारों को सलवा जुडूम के अत्याचारों के बारे में बताने और उनसे भी इस बारे में लिखने को कहा तो मुझे काफी विरोध का सामना करना पड़ा.स्थानीय मीडिया में मेरे प्रति रोष बढ़ता गया.अफजल खान ने उनके बारे में लिखा तो उसे पीटा गया और उसे महीनों घर से दूर रहना पड़ा” पर जब मीडिया किसी एजेंडे का वाहक बन जाता है तो यह खतरनाक हो सकता है.

तो हो क्या?

मीडिया को जनसरोकारों के लिए होना चाहिए. वंचित-पीड़ित-शोषित-दलित लोगों के लिए काम करना होगा.आप छोटे-छोटे मुद्दों पर “तानते” हो,जबकि इन के मुद्दों पर खामोश क्यों हो जाते हो ? मीडिया के नेशन में सबको लेकर चलना होगा. ‘सूट-बूट का मीडिया’ के आवरण से बाहर निकलना होगा. इस ‘नेशन वांट्स टू नो’ में नेशन की परिधि में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और कच्छ से लेकर कुमकी तक के क्षेत्र शामिल होने चाहिये, वर्ग-जाति-संप्रदाय-क्षेत्र से भेदभाव के बिना. तभी मीडिया ‘आप की आवाज’ बनकर ‘देश की धड़कन’ बनेगा और ‘सबसे आगे’ रहकर ‘खबर हर कीमत पर’ देने की कोशिश होगी तभी का ‘सच जिंदा रहेगा’

लेखक पंजाब विश्वविद्यालय में रिसर्च फेलो हैं. 

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