अनिता गौतम भीड़ प्रबंधन की खामियों पर सवाल खड़े करते हुए पूछ रही हैं कि क्या हम ऐसे हादसों से सबक लेने के बजाये उन्हें भूल जाने और फिर ऐसी गलती दोहराने के आदी हो चुके हैं?
विजय दशमी के दिन पटना के गांधी मैदान के पास मची भगदड़ में 33 लोगों की असमय मौत होने से पूरा शहर सदमे में है। इसके पहले भी छठ पर्व के मौके पर ऐसी ही भगदड़ मची थी, जिसमें दर्जनों लोग मारे गये थे। उस समय भी काफी अफरातफरी मची थी, जांच करने की बात हुई थी, दोषियों को सजा दिलाने की बात हुई थी। फिर समय के साथ उस घटना पर धुंध पड़ गई।
आने वाले समय में इस घटना पर भी धुंध पड़ जाएगी। इस सवाल का सिरे से तह तक जाने के लिए कोई तैयार नहीं है, कि भीड़ वाली जगहों पर बार-बार इस तरह की घटनाएं क्यों घट रही है ? पुलिस प्रशासन भीड़ प्रबंधन को लेकर पेशेवर क्यों नहीं है ? वर्ष दर वर्ष एक-एक करके इस तरह की घटनाएं घट रही हैं लेकिन इसे कलेक्टिव रूप में लेकर कोई निष्कर्ष पर क्यों नहीं पहुंचा जा रहा है ?
पूरी दुनिया में भीड़ प्रबंधन को लेकर एक विशेष नजरिया अपनाया जा रहा है। सार्वजनिक स्थलों पर किसी कार्यक्रम विशेष को लेकर जुटने वाली भीड़ को कैसे सुरक्षित रखा जाये यह एक अहम सवाल है और दूसरे मुल्कों में इस पर वैज्ञानिक तरीके से काम हो रहा है। बिहार में इस ढर्रे पर किसी भी तरह की सोच उभरती हुई नहीं दिख रही है। आज भी भीड़ को नियंत्रित और निर्देशित करने के लिए पारंपरिक तौर-तरीकों का ही इस्तेमाल किया जा रहा है। प्रशासनिक हलकों में भी भीड़ को लेकर पारंपरिक सोच ही हावी है।
ग्रामीण इलाकों से भी आते हैं लोग
विजय दशमी के मौके पर गांधी मैदान में लाखों लोग जुटते हैं, जिनमें महिलाओं और बच्चों की संख्या अधिक होती है। अधिकतर लोग पटना से सटे ग्रामीण इलाकों के होते हैं। परिवार के साथ रावण वध देखने की ललक उन्हें यहां खींच लाती है। ग्रामीण इलाके के लोग वैसे भी शहरी तौर-तरीकों से ज्यादा वाकिफ नहीं होते हैं। ऐसे में उन्हें कुशलता से शहर में लाने और निकालने की प्रशासन की जिम्मेदारी थोड़ी और बढ़ जाती है। किसी भी तरह की अनहोनी के मद्देनजर प्रशासन को और भी अधिक चौकस रहने की जरूरत होती है। दुर्भाग्य से पटना का पुलिस प्रशासन इसके लिए न तो कभी मानसिक और न ही यांत्रिक रूप से तैयार दिखता है। चंद अप्रशिक्षित लाठीधारी सिपाहियों के सहारे ही इस तरह की भीड़ से प्रशासन दो-चार होता है।
पटना के गांधी मैदान के पास जो कुछ भी हुआ उसे महज थोड़ी सी सावधानी और सतर्कता से टाला जा सकता था। जो लोग विजय दशमी के मौके पर अपने घर से रावण दहन देखने निकलते वे सकुशल अपने घर को लौट सकते थे।
हम क्यों नहीं सीखते?
प्रशासन भीड़ प्रबंध को लेकर छोटी-छोटी बातों का भी ख्याल नहीं रख सकी। यदि प्रत्यक्षदर्शियों की माने तो गांधी मैदान के आसपास व्यापक लाइट का भी प्रबंध नहीं था, जबकि यह हर किसी को पता है कि रावण दहन होते-होते अंधेरा छा जाता है और अंधेरा भीड़ के लिए खतरा बन सकता है। जिस द्वार से लोगों को गांधी मैदान से निकालने की व्यवस्था की गई थी उसके करीब ही एक बिजली का तार गिरा हुआ था। प्रशासन के लोगों को वह तार नहीं दिखा या फिर देखकर भी उसकी अनदेखी करते रहे क्योंकि उन्हें इस बात का भान ही नहीं था इस तरह की वजह से भीड़ में किसी तरह की अफवाह भी फैल सकती है। इतना ही नहीं गांधी मैदान से भीड़ की निकासी के लिए मात्र एक द्वारा का इस्तेमाल किया जा रहा था।
प्रत्यक्षदर्शियों की माने तो स्थिति जालियांवाले बाग की तरह थी। गांधी मैदान के सारे दरवाजे बंद थे और मात्र तीन फीट के खुले एक दरवाजे से लोगों को सरकते हुये बाहर निकलने के लिए छोड़ दिया गया।
हर दरवाजे के खुले होने की स्थिति में पटना का हार्ट कहा जाने वाला गांधी मैदान चंद मिनटों में खाली हो जाता है।
बहरहाल इस तरह की घटना आगे न दोहराई जाये एवं मौत पर सिर्फ मुआवजा और राजनीति न हो इसकी भी पुरजोर कोशिश होनी चाहिए।