अब जबकि लालू-नीतीश एक हो कर सियासी अखाड़े में हैं और वे बिहार के सबसे बड़े वोटर समूह- मुसलमानों पर टकटकी लगाये हुए हैं, ऐसे में भाजपा क्या रणनीति अपनायेगी?
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट इन
अब जबकि राजद-जद यू- कांग्रेस गठबंधन व्यावहारिक रूप ले चुका है,बिहार का राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह से स्पष्ट हो चुका है. ऐसे में लालू-नीतीश के राजनीतिक मिलन ने यह तय कर दिया है कि आगामी विधानसभा चुनाव पूरी तरह से दो ध्रूवीय होगा. एक तरफ भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन में लोजपा और रालोसपा जैसी पार्टियां होंगी तो दूसरी तरफ राजद-जद यू के साथ कांग्रेस, एनसीपी हो सकती हैं. हालांकि जीतन राम मांझी और पप्पू यादव के नेतृत्व वाले संगठनों ने अभी अंतिम रूप से कोई फैसला नहीं लिया है पर ऐसा लगता है कि ये दोनों किसी न किसी रूप में उन दोनों गठबंधनों मे से किसी एक के ही करीब होंगे.
जिस तरह से दो विशाल गठबंधन आकार ले रहे हैं उससे एक बात और स्पष्ट होती जा रही है कि इस बार के विधान सभा चुनाव में वोट हासिल करने के लिए विकास जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे के बजाये सामाजिक पृष्ठभूमि सबसे प्रखर रूप से सामने आयेगी. यह स्थिति 2010 के विकास के मुद्दे पर लड़े गये चुनाव के बिल्कुल बरअक्स होगी. हालांकि भाषणों में विकास का मुद्दा जरूर स्थान पायेगा. जहां नीतीश कुमार चुनाव प्रचार के दौरान अपनी सरकार द्वारा किये गये विकास कार्यों की चर्चा करेंगे वहीं भाजपा और उसके गठबंधन के दल केंद्र में मोदी सरकार का हवाला दे कर बिहार में भी भाजपा गठबंधन की सरकार बनाने की बात करेंगे. लेकिन वास्तविक रूप से चुनावी परिदृष्य, सामाजिक समूहों की गोलबंदी के इर्द-गिर्द ही घूमेगा.
सामाजिक परिदृष्य
ऐसे में भाजपा यानी एनडीए गठबंधन का जोर अगड़ी जातियों के अलावा अतिपिछड़ों, वैश्य और दलितों के एक वर्ग पर केंद्रित होगा, जबकि अन्य पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक वर्ग के मतदाताओं के वोट के लिए उसे विधानसभा क्षेत्र विशेष के प्रत्याशी और वहां के राजनीतिक समीकरण पर निर्भर होना पड़ेगा. इसी प्रकार राजद-जद यू व कांग्रेस गठबंधन का मुख्य रूप से पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और दलितों के एक समूह पर जोर देने की रणनीति होगी. अन्य अगड़ी जातियों और दलितों के कुछ समुहों के वोट के लिए उसे विधानसभा क्षेत्र विशेष के प्रत्याशियों की सामाजिक पृष्ठभूमि और राजनीतिक समीकरण के आधार पर रणनीति तय करनी होगी.
मुस्लिम फैक्टर
नये बनते समीकरणों के आलोक में एक महत्वपूर्ण पक्ष के रूप में जो वोटर समूह सामने होगा वह मुसलमानों का होगा. वोटर समूह के रूप में मुसलमान 16.5 प्रतिशत आबादी के साथ बिहार का सबसे विशाल समूह है. और फिलवक्त जो सियासी हालात हैं, उस लिहाज से मुस्लिम वोट जिस गठबंधन के पास जायेगा वह बोनस की हैसियत का होगा और प्रतायशियों की जीत-हार का काफी हद दक दारोमदार मुस्लिम वोट पर निर्भर करेगा.
भाजपा की मुस्लिम रणनीति
इस परिस्थिति में एक हद तक यह बात स्पष्ट होती जा रही है कि दोनों गठबंधन मुस्लिम वोट के लिए प्रयास करेंगे. हालांकि अब तक के चुनावी तजर्बों को देखें तो ऐसा कहा जा सकता है कि मुसलमानों का स्वाभाविक रुझान समाजवादी शक्तियों की तरफ रहा है. ऐसे में लालू-नीतीश की जोड़ी मुस्लिम मतदाताओं के प्रति ज्यादा आश्वस्त दिखेगी. हालांकि मुस्लिम मतदाताओं के इस रुझान का आभास भाजपा के केंद्रीय नेताओं के साथ-साथ प्रदेश नेतृत्व को भी बखूबी है. भाजपा के नेता सुशील कुमार मोदी के बयानों को याद करें जिनमें उन्होंने कई बार दोहराया है कि उनकी पार्टी विधानसभा चुनाव में मुसलमानों को ज्यादा से ज्यादा टिकट देगी. अगर सुशील मोदी के उन बयानों पर भाजपा गठबंधन व्यावहारिक रूप से अमल करते हुए 25-30 मुस्लिम प्रतायाशियों को मैदान में उतार देता है तो लालू-नीतीश के लिए भारी चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं. क्योंकि तब ऐसी हालत में मुस्लिम मतों का विभाजन होने की संभावना काफी बढ़ जायेगी.
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन के लोजपा प्रत्याशी महबूब अली कैसर की जीत इस रणनीति की जीत के रूप में देखा गया, हालांकि लोकसभा चुनाव में भाजपा के सबसे नामचीन मुस्लिम चेहरा शाहनवाज हुसैन की हार का उदाहरण भी कुछ लोग दे सकते हैं, परंतु राजनीति पर गहराई से नजर रखने वालों को पता है कि शहनवाज की हार भाजपा की अंदरूनी राजनीति का नतीजा थी.
दर असल 2015 का बिहार विधान सभा चुनाव भाजपा के लिए एक गंभीर चुनौती के साथ-साथ एक महत्वपूर्ण अवसर भी है जब वह मुसलमानों को अपनी तरफ खीचने की कोशिश कर सकती है. उसकी इस कोशिश ने अगर रंग लायी तो वह नीतीश-लालू को टक्कर देने की पोजिशन में हो सकती है. पिछले कुछ वर्षों में भाजपा ने, खुद पर लगते रहे इन आरोपों को धोया है जब उसे अगड़ी और वैश्य जातियों की पार्टी कहा जाता रहा है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उसने संगठन से ले कर संसद तक में अन्य पिछड़ी और दलित जातियों को भी नुमाइंदगी देनी शुरू की है. और इसके अच्छे नतीजे भी उसे मिले हैं. पर महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या वह मुस्लिम वोटरों को अपने करीब लाने का जोखिम लेगी या फिर वह साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण के आजमाये हुए नुस्खे पर चलते हुए जीत की नैया पार लगाना चाहेगी?
साभार दैनिक भास्कर, संपादित अंश