जद यू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह सिर्फ एक राजनीतिक शिल्पकार ही नहीं, राजनीतिक चिंतक भी हैं. वह चुनाव नतीजों की परत दर परत पर हमारे सम्पादक इर्शादुल हक से क्या कह रहे हैं आप भी पढिये.
क्या आपने सोचा था कि चुनाव परिणाम ऐसा होगा ?
भाजपा शहरी मध्यवर्ग की पार्टी है.उसमें सेमी अर्बन और अर्बन सीट को भी जोड़ लें तो भाजपा की पहुंच बमुश्किल तीस प्रतिशत सीटों तक ही थी. इस बात का एहसास उन्हें था पर वे मुगालते में थे कि वे मोदी के चेहरे से सारे हालात बदल देंगे. यही कारण है कि उन लोगों ने कास्ट और रिलेजन दोनों तरह की घृणा को भड़काया. काउ को दिव्य रूप दिया.पर वे समझ नहीं पाये कि काउ राजनीति के प्लैंक का हिस्सा नहीं है.
बिहार के हालात को वे अनालाइज नहीं कर सके. वे गुजरात मॉडल यहां ले कर आ गये जबकि यहां की समस्या अलग है. दूसरा गंभीर मामला था- उनका अहंकार. अमित शाह की बोली में अहंकार था. मोदी की भाषा पीएम की भाषा नहीं थी. वह तो स्ट्रीट पालिटिक्स करने वालों की भाषा थी.
परिचय
जनता दल यू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ट नारायण सिंह, नीतीश कुमार के संघर्ष के दिनों के साथी हैं. 68 वर्षीय वशिष्ट नारायण की काबिलियत और वरिष्ठता ही है कि नीतीश उन्हें वशिष्ठ भाई कहके संबोधित करते हैं. समाजवादी राजनीति के सजग चिंतक माने जाने वाले वशिष्ठ की सांगठनिक मामलों पर मजबूत गिरफ्त रही है. उनके इन्हीं गुणों के कारण उन्हें जनता पार्टी के दौर से ही प्रभावी जिम्मेदारियां मिलती रही हैं. जनता दल की सरकार में वह कैबिनेट मंत्री भी रहे. फिलवक्त वह राज्य सभा के सदस्य हैं.
अगर आप याद करें तो पायेंगे कि पहले चरण में मोदी ने डेवलपमेंट का एजेंडा अपनाया. दूसरे फेज में वह जाति पर उतर आये. उन्होंने समझाना शुरू किया कि वे अतिपिछड़ा के बेटे हैं. तीसरे चरण में में उन्हें लगा कि इससे भी काम नहीं चलेगा तब उन्होंने कास्ट और रिलिजन को बड़े जोर से उठाया. मैं नहीं मानता कि सिर्फ मोहन भागवत का बयान ही कास्ट लाइन को रिप्रजेंट कर रहा था. भागवत का बयान तो मात्र कास्ट लाइन की सोच को आगे बढ़ाने वाला था.
आरएसएस की भूमिका कैसी रही ?
जरा गौर कीजिए कि पहले साध्वी प्राची, योगी आदित्यनाथ और संगीत सोम जैसे लोग ( घृणा फैलाने वाले) बयान देते थे. लेकिन इस बार तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह भी उसी भाषा में बोले. इनके सामने सुशासन का एजेंडा महत्वपूर्ण नहीं था.मोदी और अमित शाह मिल कर आरएसएस का एजेंडा लागू करने लगे. आरएसएस की दृष्टि में खुलापन नहीं है. खुलापन होता तो कभी वे आरक्षण की समीक्षा की बात नहीं करते.
भाजपा ने कहां क्या भूल कर दी?
उन्हें बेसिक चीज समझ नहीं आयी. स्टेट के चुनाव में पूरी टीम उतार दी. यहां के कस्टम, एटिच्यूड यहां की जीवन शैली को समझने के बजाये वे अपने एजेंड थोपने लगे. दो लोगों ने पूरी पार्टी को अपने साये में ढक लिया. ऐसा लग रहा था बिहार में पार्टी नाम की कोई चीज नहीं.साथ ही एनडीए के घटक दल आपसी विवाद में उलझे रहे. कभी मांझी का बयान कि सम्मानजनक समझौता नहीं हुआ. कभी रामविलास पासवान आपसी लड़ाई में शामलि हो जाते थे तो कभी उपेंद्र कुशवाहा के लोग उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की बात करते थे.
मोदी कहां पिछड़ गये?
पीएम अनेक मामले में पिछड़ गये. प्रचार में कूदने से जो तस्वीर बनी उससे यह लगने लगा कि लड़ाई नीतीश कुमार और पीएम के बीच थी. पीएम राजनीतिक मुद्दों को निजी स्तर पर ले कर पहुंच गये. वे ऐसे बयान देते थे जैसे किसी दुश्मन राज्य में आये हों. वे ह्युमेन सॉइकोलॉजी को रीड कर नहीं पाये और एग्रेसिव कम्पेन करने लगे. अंत में पूरे चुनाव को कम्युलनालाइज्ड भी कर दिया. मोदी ये भूल गये कि वे खुद देश की कमान 18 महीने से संभाल रहे हैं ऐसे में एंटिइनकम्बसी को जब वे भुनाने की कोशिश में पड़े तो यह प्रश्न उन्हीं के खिलाफ हो गया.
बीजेपी में अंदरुनी बहस शुरू हो गयी है.जो बुजुर्ग नेता साइडलाइंड हैं अब वे सवाल उठाना शुरू कर चुके हैं.जिस तरह से इन लोगों ने कम्पेनिंग की उससे के जरिये उन लोगों ने सेग्रिगेट कर दिया कि बिहार देश का पार्ट नहीं है. आप देखें कि कैसा ऐंग्विश और ऐंगर पीएम की भाषा में दिखा. मत भूलिये कि मोदी सिर्फ भाजपा के नेता नहीं हैं. वह पीएम हैं तो ऐसे में उनके बयानों के आधार पर संघ और राज्य का सवाल गंभीरता से उठेगा.
चुनाव नतीजे के बाद के बाद के हालात क्या होंगे?
इस चुनाव नतीजे से जो बात सबसे महत्वपूर्ण हो कर उभरेगी वह है देश में स्ट्रांग आपोजिशन का भाव पैदा होना. इस चुनाव के पहले विपक्षी दल कमजोर दिखाई पड़ता था लेकिन अब उसके अंदर एक स्फूर्ति पैदा हो गयी है. ऐसे में जब बिहार का चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में रहा तो इसका असर भी देशव्यापी होगा.
राजद-जदयू के बीच तालमेल की चुनौतियां क्या होंगी ?
देखिए कॉमन मिनिमम प्रोग्राम की घोषणा होगी. हम सब समाजवादी हैं और मूल रूप से हमारा खानदान एक ही है. जब हम साथ आने पर विचार कर रहे थे तो तो लोगों का सारा अप्रिहेंसन इस तबात पर था कि लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच तीखे रिश्ते रहे हैं.पर कुछ लोग इस पर गौर नहीं कर रहे थे कि हालात और वक्त आदमी का स्ट्रैटजी भी बदलने को बाध्य कर देते हैं. भूत की बातों को आधार बना कर अनालिसिस करेंगे तो आप कभी सही नतीजे पर नहीं पहुंच सकते. दर असल जद यू राजद के संबंधों पर सवाल खड़ा करने वालों ने वालों ने नहीं देखा कि राजमार्ग की तरफ जाने वाली जो सड़कें हैं वे अब केवल सम्पन्न लोगों के लिए नहीं हैं. ऐसे में जद यू और राजद के शीर्ष नेता आम लोगों की आकांक्षा को बखूबी समझ रहे हैं. फिर रिश्तों की कमजोरी की बात करने वाले आने वाले वक्त में खुद ही खामोश हो जायेंगे.
तो क्या दोनों पार्टियां विलय की तरफ बढ़ेंगी ?
देखिए यह एक प्रक्रियात्मक मुद्दा है.लेकिन फिलहाल हमें अभी यह देखना है कि बिहार चुनाव परिणाम के अलग-अगल राज्यों में क्या असर होते हैं. जब कोई चीज मूर्त रूप लेती है तो अनेक आंतिरक बातें हैं जो समय के अनुसार शेप लेती हैं. मुझे कई वरिष्ठ समाजवादियों के फोन आये. कई लोग मिलने भी आये. विजय प्रताप से ले कर बहुत से लोग आ रहे हैं. सब अपने अपने ढ़ंग से इन बातों को रख रहे हैं. पर फिलहाल सबसे बड़ी प्राथमिकता यह है कि सरकार आम जन की उम्मीदों पर आगे बढ़े.
इस प्रचंड बहुमत का पैगाम क्या है?
जो बहुमत मिला है वह बहुमत की आक्रामक है. लोगों ने 2014 में केंद्र में मोदी के पक्ष में आक्रामक वोटिंग की थी. लेकिन महज 18 महीने में जनता ने हमारे पक्ष में आक्रामक वोटिंग की है. इस वोटिंग पैटर्न में समाज के हाशिये के लोगों की भावनायें सामने आयी है.उन्हें महसूस हुआ कि सरकार में हमारा भी कुछ है तो वोटिंग परसेंट बढ़ गया. वोटिंग परसेंट का बढ़ना सिगनल्स हैं कि आप विकास का जो भी एजेंडा बनाइए उसमें नेगलेक्टेड सेक्शन भी एजेंडा का पार्ट हो.